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अव्यक्त चुम्बन / जगदीश गुप्त

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एक चुम्बन वह
कि जिसमें शान्त होठों तक ढुलक आए असीम विषाद,
अधर-मधु के साथ मिश्रित आँसुओं का स्वाद।

एक चुम्बन वह
कि जिसमें उष्ण श्वासों की उमस नस-नस कसे उन्माद,
अधर-मधु के साथ मिश्रित दंशनों का स्वाद।

किन्तु इनसे भिन्न — बिल्कुल भिन्न — चुम्बन एक
तन में निहित, मन में निहित,
आँसू में, नयन में निहित,
सब आकर्षणों का मूल,
पीड़ा से न जो विगलित,
न जो उन्माद से आरक्त,
चिर अव्यक्त,
जो पहुँचा नहीं सुकुमार रागारुण अधरदल तक,
भोर के नीहार-सपने सा,
उलझ कर रह गया अध-मुक्त पलकों बीच।

उस जैसा नहीं कुछ और —
जो दे झुलसता अस्तित्व भीगे स्पन्दनों से सींच।