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मध्यस्थ / जगदीश गुप्त

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जीभ की मृदु नोक को ऊपर उठा
जब दाढ़ के तीखे कगारे बार-बार टटोलता हूँ मैं —
और जब सहसा ’कैनाइन टीथ’ छू जाते
सिहर जाती देह
निस्सन्देह
लगता मुझे जैसे अभी तक पशु ही बना हूँ मैं।

किन्तु जब पलकें झुका, दृग मून्द
झाँकता हूँ हृदय के उस पार,
मन के गहन लोकों में —
तुम्हारे स्नेह के आलोक से पूरित,

उधर जाते अनेकों द्वार — अनगिन द्वार
जिनकी आड़ से झाँई तुम्हारी झाँकती
तिरती
बिखरती
फैल जाती ज्योति के उजले कुहासे सी

चेतना की उस मधुर स्वप्निल कुहा में
मुझे लगता देवता हूँ मैं।
तुम बनो मध्यस्थ
बतलाओ कि क्या हूँ मैं।