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अधखुले द्वार / जगदीश गुप्त

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           अनजाने मैंने ही खोली होगी साँकल
           खुल गए हवा के झोंके से होंगे किवाड़।
           लघु एक चमकता तारा झलका और दिखा —
           आकाश-खण्ड अधखुले द्वार की लिए आड़।

वह नभ का टुकड़ा खुली हवा में डूबा-सा
तम भरा मगर तारों की किरणों से उजला।
आँखों-आँखों से होकर तैर गया सीधे —
मन तक जिसमें था रुँधा हुआ जीवन पिछला।

           जाने कितना हो गया समय दरवाज़ों को
           मैंने अपने ही आप बन्द कर रखा था।
           कमरे के भीतर की दुनिया तक सीमित हो
           मैं ही अपने से कहा किया अपनी गाथा।

उस गाथा को अपने ही रचे अन्धेरे में
देता रहता था झूम-झूम नित नए छन्द।
थी आसमान को भूल चुकीं आँखें बिल्कुल
अच्छे लगने लग गए उन्हें थे द्वार बन्द।

           पर आज अचानक आसमान के टुकड़े ने
           कमरे के भीतर राह बना ही ली आख़िर।
           मेरे मन ने मुझको इतना मजबूर किया
           उठकर मैंने सब खोल दिए दरवाज़े फिर।

लेकिन सब दरवाज़ों के खुल जाने पर भी
जाने क्यों वह आकाश साफ़ दीखता नहीं।
नज़रों के आगे आकर छाई जाती है
मन के भीतर की रुँधी ज़िन्दगी कहीं-कहीं।

           बाहर के परदे दूर हुए फिर भी मन के
           भीतर के परदे सब ज्यों के त्यों क़ायम हैं।
           तारों की इतनी घनी रोशनी व्यर्थ बना
           ये बढ़ा रहे अपने तम से नभ का तम हैं।

बाहर का चन्दा आसमान पर चढ़ आया
लेकिन भीतर चान्दनी अभी तक खिली नहीं।
सारे दरवाज़े खोल दिए मैंने फिर भी
सच मानो मेरे मन को राहत मिली नहीं।