आकाशे मँडराते
ठूठों पर बैठे दिन
उग आए आँखों में
रक्तपुष्प थूहर वन।
लम्बी रस्सी छोटी, ओछे दो पड़े हाथ,
रिश्वत के आगे ज्यों वेतन लगते अनाथ;
आशा की बदली
आशंकाओं के पहाड़
आज कुबेरों के घर पानी भर रहे वरुण।
खून पसीना करते, महँगे दिन जुते हुए,
मार से अभावों की चेहरे सब पुते हुए;
भाग्य के भरोसे भी
कबके हो गए धता,
खेत रहे पिता, पितामह गुरुजन।
मृगमरीचिकाओं से, जन ने परिवेश जिए,
सुंदर के सपनों को गुदनों-सा गोद लिए;
बंधुआ के घर अब भी
बंधुआ हो रहे जनम।
ताड़ी जैसे नारे, ठर्रे से आश्वासन।