सुबह-शाम हम जिनको छीजे,
वक्त पड़े पर वो न पसीजे।
गै़रों ने आकन्न रखी पर
सगे-सगों ने ही उछाल दी,
अपने ही जाये अंशों ने-
नाकों आज नकेल डाल दी;
खेतों उगे कँटीले करकट-
धान जहाँ हमने थे बीजे।
दिन मेरे अंतर्यामी के-
पड़े हुए गहरी साँसत में,
केश बिखेरे रात चीखती,
हम सब खड़े महाभारत में;
कुसमय काल, कपास समझकर-
हमें आज धुनियाँ-सा पींजे।
राजपुत्र-से जन्म हमारे
सूतपुत्र-से भाग्य लिखे हैं,
दिव्य दृष्टि संजय-सी, लेकिन
सपने कभी-कभार दिखे हैं;
मन उचाट अपने से ही जब,
किसी ग़ैर पर कैसे रीझे?