याद तुम्हारी आती!
लिपे-पुते आँगन में
उछरे दो पाँवों सी-
याद तुम्हारी आती।
महावर भरी एड़ियाँ
दरमा-सी दिरक गईं होंगी दो,
धुँधवाई आँखें भी
रो-रोकर फरक गईं होंगी दो;
फरबों तक पानी में
उतरे दो पाँवों-सी
याद तुम्हारी आती।
दो हथेलियाँ मिलकर
थकीं हुई धान कूटती होंगी,
चूड़ियाँ पुरानी जो
किस्मत-सी रोज फूटती होंगी;
काई में फँसे हुए
गहरे दो पाँवों-सी
याद तुम्हारी आती।
रूखी-सूखी अलकें-
प्रश्नों-सी बिखरी होंगी भारी,
सूरज बिंदिया माथे-
पुछ-पुछ जाती होगी दहिजारी,
भीड़ के अकेले में,
ठहरे दो पाँवों-सी-
याद तुम्हारी आती।