चलो कहीं सतपुड़ा
कहीं विंध्याचल हो लें।
लगातार होते रहना केवल पठार-सा,
महज मर्त्तवानों में होना ये अचार-सा।
इस हालत को आखिर कब तक भोगेंगे हम?
ठहरे हुए जलों से बेहतर
बादल हो लें।
कभी-कभार, कहीं होने के खोजें अवसर,
शब्द सार्थक हो न सकें तो हो लें अक्षर;
रहें न मात्र प्रतीक्षित मौसम की फिराक में-
सन्नाटों से बेहतर हम
कोलाहल हो लें।
कहाँ हो सका महज ताप्ती और नर्मदा-सा हो लेना?
जुटा न पाई यात्राएँ ये, सस्ता महँगा चना-चबेना।
अपने तईं न हो पाए हम तनिक ढंग से
रमतूलों-से बजें
कहीं पर मादल हो लें।