वेदवाक्य होना था, लेकिन हुए आजकल हम गाली-से।
आईने मुँह चुरा रहे हैं भंते! अपनी बदहाली से।
महानगर दिल्ली हो या फिर गाँव लुहारू,
शक़्ल-सूरतों से लगते हैं सभी बाजा
दस्तावेज़ समय के अपने
नज़र आ रहे क्यों जाली से?
बीहड़ आज बस गए आकर मैदानों में,
खेत-खेत में खाई, खंदक खलिहानों में;
क्यों बारूदी गंध आ रही
इस पत्तल या उस थाली से?
वस्तु व्यक्ति में फ़र्क नहीं रह गया ज़रा-सा,
पूँजी ने क़ातिल छेनी से ग़ज़ब तराशा।
जिसे दौड़ना था रग-रग में
वही बह रहा है नाली से।
वेदवाक्य होना था, लेकिन
हुए आज हम-तुम गाली-से।