नानक की पत्तल, फरीदा का भात,
खाकर निहंगो, हुए हम कुजात।
मगरये बरहमिन न शेखों का अन्न,
जिसे खाके मनुवाँ हमारा प्रसन्न
ये मेहनत, मुहब्बत का प्रतिदान है-
चलो चल के खुद को ही कर डालें धन्न।
भरे पेट वालों की मंशा है ये-
कि मरे, मर ही जाए ये भूखी जमात।
बड़ा आदमी सूकरों श्वान से,
न खेले कोई धर्मों-ईमान से,
किए अपने अंतःकरण ग़र हलाक-
न रह पाएँगे हम भी इंसान-से।
खुदा जाने चौकों से ये कब तलक-
झगड़ती रहेंगी कड़ाही-पराँत।
न कुल गोत्र, जातें, किताबें न ग्रंथ,
नहीं कोई मज़हब, नहीं कोई पंथ;
जिए आदमीयत तो जिं़दा हूँ मैं-
हूँ बंदों का बंदा, नहीं कोई संत।
कि शामों की झोली में उठकर के हम
गृहस्थों को दे आएँ बेख़ौफ रात।