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सामाजिक प्रसंग / भिखारी ठाकुर

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प्रसंग:

बदलते सामाजिक परिवेश पर व्यंग्य।

13.

आढ़नी तर के जनियाँ, अजब चनवलू चलनियाँ हो, ओढ़नी तर के जनियाँ।
ससुई के ध के झोंटा, ससुर परचलवलू सोंटा; झाडू से उतरलू लछनियाँ हो।
भात-दाल-तरकारी बनवलू, बाजाका खातिर तेल मंगवलू; कहलू जे होई ना पिसनियाँ हो।
पति के बचन सुनी, रोयेलू तूँ सिर धुनी; नइहर के करेलू बखनियाँ हो।
रुसि के निकललू, गोड़, पतिबरत देलू छोड़; नाहके में भइलू बेपनियाँ हो।
कहना तूँ मान मोर, सगरो भइल सोर; अब कब सिखबू रहनियाँ हो।
कहत 'भिखारी' तोहार काला से भरल बा नारी; नया-नया कहेलू कहनियाँ हो।

दोहा

छव गज के सारी पेन्हलू, अँचरा कइलू छोट।
आधा पेट के झुला सिया के, भइलू मेंही से मोट॥

वार्तिक:

धोती पहिर के गमछी देह पर राख के जनेय पहिर के कुरता-निकाल के काहे भोजन कइल जाला।

गूह-मूत के रास्ता तोपल। से धोती पर मन बा चोपल॥
नेटा-थूक रहत लपटाइल। तबहूँ गमछी सुध कहाइल।
काहे दो काढ़ के भोजन कइलन। कुरता से का कुकरम भइलन॥
ऊपर नीचे के निमन कहइलन। बीचे अबलू छाँटल गइलन॥
सूत के कुरुता सूत के धोती। सूत से सूत सियाई होती॥
चारू जना के एके जात। भात खात कुरुता सरमात॥
तवने सूत जनेव कहावत। जात से पदवी बड़का पावत॥
कहत 'भिखारी' सहजे बात। हमरा नइखे इहे बुझात॥

प्रसंग:

एक वृद्ध व्यक्ति का अपनी पुत्र-वधू को समझाना।

वार्तिक:

एक बूढ़ जेकर पतोह बूढ़ा से अलगा भइल रहे, से बूढ़ शोक के बस में होके कहत बाइन-

धुन शायरी बिरहा

हमरा से बिगाड़ क के, कहवाँ रहबू गोरिया।
हम त सब दिन के तोर हउई लेहुआदाग॥टेक॥
सब दिन के तोर हउईं लेहुआदाग ए ठगिनिया॥
हम भइलीं बूढ़ तोहरा चढ़ल बा जवनियां॥
हमरे पाके चढ़ल तोहरा देह पर सोना-चनियाँ॥
रेशम के चोली, राँगल साड़ी बैगनियाँ॥
खुशी से ना कबहूँ देलु, एक लोटा पनियाँ।
मानऽ हमार बात, अबहूँ से पगलिनियाँ॥
चल क रह घर में तूँ ही बन के मलकिनियाँ।
दुनों साँझ खायक करीह, रहिह चुहनियाँ॥
हमरा के भेजइह जाइब सौदा के दोकनियाँ।
चाउर-दाल-नून कीनब हरदी-मरिचा धनियाँ॥
हमार बात सुनलु, त मूंदलु पपनियाँ।
जरिये के हउअ तूँ, कोतह-गरदनियाँ॥
दोसरा के बुधि ले के होखेलु हरनियाँ।
रामजी के गुण गावऽ होइबू भगमनियाँ॥
कहे भिखारी जेकर बाटे कुतुब पुर मकनियाँ।
हम त सब दिन के हउई लेहुआ दाग॥

वार्त्तिक:

तब से पतोह अपना ससुर के सेवा करे लगली, मेल से एकठ्इ रह गइल लोग।

प्रसंग:

भिखारी ठाकुर की भाव मण्डली (तमाशो के पत्रों) की नामावली।



फुटकर

बिधवा विलाप में के अंश

पूरब में कइली जइसन भोगत बानी भोग तइसन।
होश बिनु दोष तोहे देत बानी हो बाबू जी॥
दुलहिन जोग बर, खोजब त बसी घर।
हर सब बेटी का वियोग हो बाबूजी॥
आपन होखो तेकरो के पूछे आवे सेकरो के.
दीह मति पति दुलहिन योग्य हो बाबूजी॥
हम कह के जात बानी, होइ अबकी जीव के हानी।
नाहीं देखबि जइहर नगरिया हो बाबूजी॥
थोड़े में कहत बानी, सीता रामजी राख पानी।
चरणा शरण से बिसरवल हो बाबूजी॥
लोक लाज सब खोके, पति संग सती होके.
भइल बदनामी सामी साथ रहब हो बाबूजी॥
अबहूँ से सब केहु, मनवाँ में सोचि लेहू।
परी जाई बेटी के कलपना हो बाबूजी॥
बेटी के वियोग गाई चितलाके सुने पाई.
तेकर भलाई करसु काली माई हो बाबूजी॥

भाड

कुतुपुर गरोह बन्हाइल नाम भइल चहुँ ओर,
नाच देखा के सभा के मोहली जैसे थिरके मोर॥
केहू ह बाबूलाल, केहू घरघुमन मूरत ह,
केहू ह गोरख राय, केहू जगदेव जयनाथ ह।
केहू ह बुधन, केहू राजबलम रामदास ह,
केहू ह फिरंगी, केहू जुठन सोमारू लालू नाचे में फास्ट।
कहीं वाह-वाह वाह




भिखारी शंका समाधान

वार्तिक:

हमारे मण्डली में बहुत-सा आदमी आया, नकल पाठ सिख लिया, रुपये कमाया, रुपया कमाकर चला गया और खास मंडली वांध लिया, कोई-कोई दुसरे मंडली में रह गया। कोई अपना पेशाकर रहा है। इस समय में जितना मण्डली में है। इन लोगों को भी हमारे मंडली में रहने का कुछ ठीक नहीं है। चाहे ये लोग साल लग जाने पर चला जाए, चाहे हम जवाब दे। इसलिए ठीक नहीं कह सकता। तदपि इस समय में जो-जो समाजी हामरे मंडली में है। इन सब लोगों के खास कर के घर छपरा जिला में है।

कविता

बाबू लाल छांटत बाल भेंदहूँ के जानत हाल-वैसे हि महेन्द्र कुछ धु्रपद के गवैया है,
सब रंग-ढंग बा घिनावन का ढोलक में, तरह-तरह तबला के तफजुल बजवैया है।
सारंगी सरगम्मा अलीजान के जानत नीक हद हरमुनिया के जगदेव वजवैया है।
रामलक्षमण जूठन के भिखारी बताए देत खास कर हास रस नकल के करवैया है।

दोहा

उमा फिरंगी सटा लिखवात युगल करींदा लोग।
राम नाम के मन में जनिह, तप तीरथ व्रत योग।

प्रसंग:

विदेश या परदेश गए पति की वियोगिनी पत्नी के दुःख-दर्द की गीतात्मक अभिव्यक्ति

गाना

लागी गइल बा सुरतिया में डोरी।
तोहारा से कहत बानि कहिऽमत गोरी। हमरा से छोटी-छोटी भइली लरकोरी॥
गते बतिआवत बानी गोतिनी के चोरी। सुनला प जहाँ-तहाँ दात निपोरी॥
बहुत दिन से बाड़न कलकत्ता में अगोरी। केकरा से खेलीं हम फगुआ में होरी॥
कहत 'भिखारी' नाई दुनों कर जोरी। राम रस पिय मन सजीवन घोरी॥

गाना

लागी गइल बा बिदेसी में नजरिया॥
आठो घरी उठत बा करेज में लहरिया। छोरी के पारलन सब लहबरिया॥
कुरता-चदर-घड़ी-धोती पाढ़धरिया। बिसरत नइखन झारल बबरिया॥
तनिको रुचत नइखे पूरी-तरकरिया। ठहरे तवांत बा परोसल थरिया॥
शंकरपुर, कोट्टवाँ 'भिखारी' के बधरिया। कुतुबपुर गंगा सरजुग के कगरिया।

गाना

लागी गइल बा बिदेसी में सुरतिया। घर में रोअत बिया ब्याही औरतिया॥
बाहर में खात बाड़न चाउर बासमतिया। आज ले ना भेजलन लिखकर पतिया॥
हमरा के जनलन ककरी के भतिया। का जाने जे का करीहन सांझा कर रतिया॥
कहत 'भिखारी' नाई मानऽ मोर बतिया। राम नाम कहऽ ना त कवन होइहन गतिया।

प्रसंग:

1349 में फसली में भारतीय ग्रामीण क्षेत्र की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय थी। कवि अपने समय की सामाजिक आर्थिक स्थिति का मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत कर रहा है।

तिन कालल सवैया

रेल के मेल ना मिलत बा कतहूँ। कतहूँ केहू जात ना आवत भाई.
गोला में कवनो अनाज बिकात ना, टोला के हालत का केहू गाई.
जीला के लीला सुनीला कहे से रहे से, धोखा कहियो होई जाई.
अति आरत बैन 'भिखारी' कहै, सब दुःख के दूर कर काली माई॥1॥
गईल-आईल-खाईल छुटल, टुटल तार दाहारन में।
खैरात बँटात न बा कतहूँ-युद्ध होखत बा सरकारन में।
दुखिया सबको भूख लागत बा नहीं मिलत बा दरबारन में,
अति आरत बैन भिखारी कहैं, श्री गोविन्द लागल गोहारन में॥2॥
तेरत सौ उनचास का साल में, सावन सुदी एकादशी आजे.
ब्यार वहै पुरवा कसि के, पछिया कबहूँ झकझोरी बिराजे.
ऊपर से बरखा बरसे नीचे, सरयुग सोन-गंगा सम राजे.
कहे नाई 'भिखारी' दया कर राम, मोकाम इहे बा गरीब-नेवाजे॥3॥
चरखा के चलावा रहे जहिया, तहिया का पेन्हावन के बलिहारी।
बारह गिरह के मोटिया ठेहुना का नीचे कुछ गोड़ उधारी॥
सुता के पोला सिकहति में लेकर, बेंचन के चलली महतारी॥
रांगा के बाजु गले हंसुली, तरकी पहिरी कहे नाई भिखारी॥4॥
अक्षर के केहू हाल ना जानत, हंठा धमुचा से काम चलावत॥
सिटिया बबड़ी बर सान गुमान, सिधा सिधी सब माथ कमावल॥
हाथी-घोड़ा के सवारी रहे, बनिया गिरहस्त पैदल धावल॥
आज के रीति 'भिखारी' कहे, घर-ही-घर में पाव-गाड़ी चलावल॥5॥
टाटी दुआरना खाटि नदारत, भरात इनार में कांटि से पानी।
सो तिनताला बनाके दुशाला ओढ़े दिन-रात नहात बिहानी॥
एको अनाज ना दाम से मिलत, काई परी पेट भितर धानी।
अति आरत होके 'भिखारी' कहै, सुधिलऽ कलकत्ता के काली भवानी॥6॥
थोड़ा पिसान पुरा महुवा; पिसि के हलुआ कर होखत भोजन।
लिट्ठी पिट्ठा नून तेल के साथ, ऊहो भर पेट नहीं कम ओजन।
धान के भात मिले कहिया, जहिया गोतियारों में होत परोजन।
अति आरत होके 'भिखारी' कहे, तवने दिन आई के लागल खोजन॥7॥
खाँटि परेह बने मटारा कर, लिट्टी-पिट्टा जव मटारा केरी
भाव खुलासा अनाज बिकात, किनात रुपैया केदस पसेरी॥
कोइन में पकवान छने घीव, काँचा का सेरन से चार सेरी॥
अति आरत होके भिखारी कहे, अंकरी नहीं मिलत बा एह बेरी॥8॥
चाउर के सहाता पहले, कहले बुढ़उ लोग सात पसेरी॥
तादिन दुर्लभ भात रहै, बकुला अस ध्यान लगै सब केरी॥
आज गरीब अमीर के भोजन क के ढेकारत साँझ-सबेरी॥
महुआ नाहीं मिलत बा खोजला से, 'भिखारी' कहै तकदीर के फेरी॥
मंगनी मिरजई लगाकर के, समधि मुसकात चलै वरियाते॥
गोड़ मंे जूता ना हाथ में छाता, गला महँ फूल के माला सुहाते॥
हित-नाता परजा-गोतिया, सब साज समाज संगै परिछाते।
तवने दिन सोचत बारम्बरा, 'भिखारी' रहै मन में पछिताते॥10॥
मरुआ सतुआ के सराहत खात, जानात बाटे खटतु रूस नीको॥
सादी साराथ में मेंल रहै, दुखिया-सुखिया-मुखिया सबहिके॥
टिकसटिप केहु नहीं खोजत, मानत सांच सफाई बही को॥
अति आरत होके भिखारी कहे, दुखिया बिनु बितल दुःख कहिको॥11॥

प्रसंग:

भिखारीकालीन समाज में लुक-छिपकर सामाजिक अपराध किये जाते थे; किंतु समाज के सम्मुख अपने को धर्मात्मा तथा त्यागी दिखाया जाता था। कवि इस आडम्बर से क्षुब्ध थे।

चौपाई

अब एक तात सुनहु बेयाना। अपने मन से बने सेयाना॥
पर-त्रिया के घर में घुसी. दानी दान करे तब दुसी॥
गऊ-गरीब-बिप्रन से बागी। अपने बनल चले तिन-त्यागी॥
माता-पिता के थपरा मारी। चनन चढ़ा के बने अचारी॥
हरदम बोली बोले बेमोका। कहे जे हम जाइब सुरलोका॥
राम भजन तनिको ना भावे। जइसे मथ कुत्ता ना खावे॥
मामला कान अईठउली काली। गाना रुचत बा कऊवाली॥
चुगलीं करे बनावे बात। हिते बन के कइलन घात॥
ई पातक कबहूँ ना छूटी. काहे खइलऽ जहर के बूटी॥
फाटल दूध में खोजबऽ घीव। मुर्दा में कहाँ पइबऽ जीव॥
बिगड़ल बात बनी ना कबहूँ। आसन सुर तक जइब कबहूँ॥
कोइला खाद के जहवाँ जारी। तम में धुआँ उठी अति भारी॥
एही लहर में रहबऽ बेचैन। पल-पल घरी-घरी दिन-रैन॥
कहे 'भिखारी' छोड़ऽ सान। ना त उठी जगत से मान॥
ठंढे मन से होइबऽ भारी। सुनीलऽ पुस्तक कान पसारी॥

वार्तिक:

एक काल रहला कि एक दौर कपड़ा बिकाइल, डबल पन्हा पचास पन्हा के होखेला।