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प्रेम की मनुहार मेरी / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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विकल चिर कल्पान्त से है प्रेम की मनुहार मेरी,
लो, डहक कर हो गई है वेदना अंगार मेरी।

तिक्त कीकर सींच कर किसने कहो कब आम खाए?
चित्र सुरतरु का बना किसने कहो धनधाम पाए?
धूम को अम्बुद समझ मैंने वृथा लोचन गँवाए!
ढह गई यों गगनचुम्बी साध की मीनार मेरी;
प्रेम की मनुहार मेरी।

अमर प्रणयाख्यान से हैं प्राण आठों याम प्लावित,
मृत्तिका, मधु, तन्तु ज्यों घट, सुमन, पट में हैं समाहित,
पर अखिल छविधाम मेरे राम शयन-समाधि-शायित,
चातकी-सी हो चली अश्रुत अशान्त पुकार मेरी;
प्रेम की मनहार।

खींच कर हिय-निकष पर निज अमिट छवि की हेम-लेखा
वेदनावाली मधुरिमा की सलोनी ज्योति-लेखा,
निपट अन्तर्हित हुए, ज्यों घन-विवर में तड़ित रेखा;
पंगु प्रतिपल हो रही यह साधना अविकार मेरी;
प्रेम की मनुहार मेरी।

किन्तु, हारिल-सा उड़ा हूँ वृत नभ का नापने मैं,
फटफटाते पंख से निज क्षितिज का तट लाँघने मैं,
टिटहरी-सा रेत-कण ले जलधि क्षण में पाटने मैं,
शक्ति संचित चितिमयी अब कर उठी प्रतिकार मेरी;
प्रेम की मनहार।
(रचना-काल: नवम्बर, 1940)