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महाभिनिष्क्रमण / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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दहकते ब्रह्माण्ड को अंगार-कण से,
जा सके जो पार कर मर्दित चरण-से?
गड़गड़ाते सिन्धु को जो लाँघता है?
कड़कड़ाते मेघ को जो बाँधता है?
प्राप्त कर सकता वही है बु;-पद को!
ऋद्धि-बल से युक्त दुष्कर मुक्तपद को!

अवनि की अमरावती में ईतियाँ हैं,
मृत्यु की पगडंडियों की भीतियाँ हैं।

रंकिनी की भाग्य-लिपि-सी रात काली,
घटापंखी वेदना की लहरवाली।
लोक-पथ विष-पंक से पटने लगा है,
आर्त्त स्वर से गगन-तल फटने लगा है।

द्वेष के आवर्त्त दुस्तर घहरते हैं,
क्रोध के पागल बवण्डर लहरते हैं।
दुपदुपाती प्रेम की कर्पूर बाती,
त्याग की गंगा हुई संकीर्ण जाती।

अग्निमय, निर्धूम मानव ताप में है,
शिशिर-झंझा में, दुसह सन्ताप में है।
दूर के सीमान्त के उस पार क्या है?
नयन नीर अगाह पारावार क्या है?
अस्थि के कंकाल की हुंकार है क्या?
भग्न जीवन-चाप की टंकार है क्या,

यामिनी में दामिनी के खुले जूड़े,
देखता हूँ बाल-रवि के अरुण चूड़े।
गगन से हिंडोल-ध्वनियाँ आ रही हैं,
पवन में झंकार भरती जा रही हैं।

आज जीवन के महारण का निमन्त्रण!
धमनियों में हो रहा है सिन्धु-मन्थन!

वेगविक्रमवान, शान-गुमानवाले,
हृदय मंे तारुण्य के तूफ़ान पाले!
तात कंथक, चल मुझे तू तार दे रे,
साज जीवन के सुभग शृंगार दे रे!

गहन कानन में अगर आदर्श न्योते!
और अलकाधाम में हम रहें सोते?
बेबसों की साँस की वंशी बनूँ मैं,
सिसकियाँ, बेचैनियाँ बन कर बजूँ मैं!

दिशा क्या है? पंथ क्या है, कर्म क्या है?
सत्य क्या है? और जीवन-धर्म क्या है?
आँसुओं में फूल की मुस्कान भरना!
पंथभंगों को सहज पथ-दान करना!
स्वार्थ के संकल्प की बलि वेदना हो!
वेदना अपनी पराई वेदना हो!

चढ़े कंथक पर चले घर-द्वार भूले,
नृत्य, रंग, बहार, राम मलार भूले।
इन्द्र की अमरावती के प्यार भूले,
और राहुल-पुत्र, प्रिय परिवार भूले।

चले ले नव स्वप्न युग-निर्माण करने,
भेद जीवन-तिमिर अरुण विहान करने।
भग्न उर में सनसने तूफ़ान भरने,
सृष्टि के सन्ताप, भय, अज्ञान हरने।

राग के तक्षक, नहीं तू आज लहरे!
द्वेष के विकरालमुख वनराज हहरे!
मोह-वृश्चिक, आज तेरे डंक टूटें,
दम्भ के कल्पान्तकृत विष-कुम्भ फूटें!

बोधि-बिरवा के तले जा सिंह-गति से,
विजय-आसन लगा बैठे सिद्ध-मति से।
पवन छोड़े स्पर्श, अम्बर शब्द छोड़े!
अग्नि छोड़े तेज, पृथिवी गन्ध छोड़े!
किन्तु, गौतम बुद्ध आसन नहीं छोड़े!
तरुण सूर्य-समान तिमिर-कपाट तोड़े!

डमडमाते वज्र-डमरू मेघ आए,
खोल कज्जल जटा स्वर-टंकार धाए!
सिंह-गर्जन कर पवन उनचास दौड़े,
महाजम्बू वृक्ष उखड़े पास दौड़े!

शैल दुर्धर शिखर-पंख पसार टूटे!
इन्द्र के सौ गाँठवाले वज्र छूटे!
मार के कोदण्ड से अंगार बरसे!
राशि-राशि तुषार, सिकता-क्षार बरसे!
किन्तु, पहुँचे पास चन्दन-सार जैसे,
कमल-तन्तु-समान, चम्पक-हार जैसे।

अमृत के घट हो, हलाहल चाहता है!
हो पुरन्दर, जो कमण्डल चाहता है!
कष्टभोगी के हृदय का हार जो है?
महामरु में विटप छायादार जो है?
प्राप्त कर सकता वही है बुद्ध-पद को!
ऋद्धि-बल से युकत दुष्कर मुक्त-पद को!

(रचना-काल: जनवरी, 1948। ‘विशाल भारत’, मार्च, 1948, में प्रकाशित।)