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सुरख़ाब / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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हे प्रफुल्ल चम्पक-प्रसून-से प्रिय विहंग, हे कृष्ण चंचु नत,
सिक्त सलिल से, पù-रेणु से सिन्दूरित सर्वांग कान्तिमत!
कपिलपिंग कोमल ग्रीवा है श्यामल कण्ठ-हार से मण्डित,
सोने के हैं पंख तुम्हारे सुन्दर नागरंग से उपमित।

शुष्क-शीर्ण हो जाता है जब शरद-काल में यौवन का रस,
भर देते मकरन्द-गन्ध से सरसी को उत्फुल्ल तामरस!
अन्तरिक्ष के तारों को मादन वन्दन-ध्वनि से झंकृत कर,
कनक-पंख फैलाए तब आते तुम जल-थल के संगम पर।

कहाँ तुहारी जन्मभूमि है, कहाँ निवास-सदन है शोभन?
उष्ण, तप्त मरुखण्ड वहाँ है या द्रुमलताकीर्ण भू-प्रांगण?
सहज सुलभ क्या नहीं वहाँ हैं शस्य-अन्न-जल, स्वादु मूल-फल?
नेह-नीर से सिंचति जौ-गेहँू के नव-नूतन अंकुर-दल?

क्या न वहाँ हैं स्वर्णपùकेसर से मण्डित झील-सरोवर?
चन्दन के समान शीतल वैदूर्य विमल जलवाले निर्झर?
क्या न भूमि का दूध वहाँ दिनमणि के रश्मि-विम्ब से जम कर,
भर देता है रत्न-मोतियों से खेतों को समय-समय पर?

स्वर्णथाल में तुम्हें चाहिए कनकजीर का क्षीर सुधा-सम?
अथवा तुम्हें चाहिए सुरभित पारिजात का हार मनोरम?
सभ्य नागरिक के समान धारण कर ताम्रारुण पट नूतन,
जल-विहार करने आए तुम छवि के मनभावन दर्पण बन!

पारावत के लिए शून्य दिग्मण्डल का है सर्वप्रथम पथ,
इसके ऊर्ध्व बिन्दू से जाता द्रोणकाक का पंखदार रथ!
कुरर तीसरे पथ-प्रांगण से नील गगन में करते विचरण,
महाकाश के चतुष्चक्रमण्डल से जाते श्येन मुदित मन!

गिद्ध पाँचवें मार्गपटल से उड़ते मेघपृष्ठ के ऊपर
श्वेतगरुत कलहंस और इससे भी जाते ऊँचे हो कर।
पर दिगन्त के मानचित्र में कहाँ तुम्हारा है पथ गोपन?
किस दुर्गम सीमा-प्रदेश से करते तुम घन में अधिरोहण?

गणित और ज्योतिष का तुमने किया नहीं चिन्तन-अनुशीलन!
पढ़ा नहीं अक्षांश और देशान्तर रेखाओं का विवरण!
नहीं तुम्हारे पास वेध-दर्पण, प´्चांग राशि-निर्देशक,
सूक्ष्म दूरदर्शक, खगोल के मानचित्र यात्रापथ-सूचक!

फिर कैसे अनन्त अम्बर का उद्घाटन कर आए हो तुम?
कैसे लवणसिन्धु की लहरों से टकरा कर आए हो तुम?
कैसे पर्वत के शिखरों पर आरोहण कर आए हो तुम?
कैसे तूफानों के ऊपर विजय प्राप्त कर आए हो तुम?

कहो तुम्हें होता है कैसे ज्ञान भ्रमण के क्षण-मुहूर्त्त का?
पक्ष, मास, ऋतु, देश, काल के निबिड़ प्रछन्न अमूर्त्त रूप का?
कौन कर सका इस अव्यक्त रहस्य-तत्व को व्यक्त आज तक?
अनुत्तरित यह प्रश्न प्रर्वतव बना हुआ महत आज तक!

सतत तरंगित जलधारा के साथ तुम्हारी जीवन-धारा,
आन्दोलित होती रहती है धो कर अन्तर का मल सारा!
गन्ध-पवन के साथ गगन के रंगम´्च पर आत्मरमण कर,
जान लिया तुमने अनन्त में रम जाने का भेद सूक्ष्मतर!

ग्राम, नगर, पर्वत, अरण्य को नव जागरण मन्त्र से भर कर,
मनोयोगपूर्वक जीवन में कर्म-सत्य की दीक्षा ले कर,
अन्तर के पट पर अंकित कर देश-देश के आत्मनिवेदन,
धु्रव प्रतीति से आए तुम किस नील रुद्र का करने पूजन?

हे सुरख़ाब तुम्हारा जीवन भरा हुआ है आकर्षण से!
चिर प्राक्तन सम्बन्ध तुम्हारा है प्रशस्त भू के प्रांगण से!
जब तक यह आत्मिक अभिन्न सम्बन्ध रहेगा बना अखंडित!
तब तक होंगे नहीं तुम्हारे प्राण-सिन्धु के तीर संकुचित!

सख्य, स्नेह, बन्धुत्व, प्रेम के चिरविभूतिमत पथ पर रुचिकर,
है पड़ गया आज विस्मृति का जड़ीभूत अवगुंठन धूसर!
ढूँढ़ लिया क्षण-भर में तुमने उसके चिह्न-बिन्दु को शुचितर,
हे शारदचारण शकुन्त, हे भू के मण्डन, मुक्त गगनचर!
है नैसर्गिक धर्म तुम्हारा विचरण करना विश्व-भुवन में;
नहीं अकेले, सख्य भाव से समपदस्थ होकर जीवन में।

(‘नया समाज’, मई, 1958)