Last modified on 18 मई 2018, at 16:11

त्रिपथगा / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:11, 18 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामइकबाल सिंह 'राकेश' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सरिद्वरा वह त्रिपथगामिनी,
बनी धरा पर लोकपावनी।

पाकर युग-युग का अभिवन्दन,
कल्प-कल्प का आत्मनिवेदन,
गाती अनन्तत्व का गायन-
दिव्यगतिप्रदा प्रणवनादिनी!

प्रखर प्रवाह शक्ति के द्वारा,
दारण कर दुर्जय गिरिकारा,
छिड़क रही भू पर मधुधारा,
तीर्थों की मा ऊर्मिमालिनी।

यज्ञधूम से शतधा छन्दित,
अन्तर में उसके अभिमन्त्रित,
चिदानन्दरस गन्धतरंगित,
अमृतस्रवा वह छन्दगामिनी।

घनमृदंगध्वनि से भर अम्बर,
विजय-पत्र लिख शैल-प्रवर पर,
भू-मन में नव जीवन के स्वर,
झंकृत करती देवपùिनी।

उठता अर्णव में बड़वानल,
यदि न ऊर्मि-भँवरों के चंचल-
भरती आलिंगन मंे शीतल,
विष्णुपदी दुग्धाम्बुवाहिनी।

(15 नवंबर, 1976)