नीलाम्बर के पक्षिराट् तुम कालनियामक,
विश्वपुरुष के चक्षु, केन्द्र ऊर्जा के व्यापक।
कुशल देव शिल्पी-से भू को चढ़ा शान पर,
करते चिर-सुन्दर का सृजन प्रकृति में गोचर।
मित्र ज्येष्ठ के, पूर्व दिशा के कर्ण-आभरण,
ज्योतिर्मय तुम अग्निकुम्भ, दीप्तांशु हुताशन।
जपा-कुसुम-सी अरुण रश्मियाँ नौकाएँ बन,
अन्तरिक्ष अर्णव में करतीं सतत सन्तरण।
पुष्कर-ऐरावत मेघों को दे आमन्त्रण,
इन्द्ररूप में लाते तुम वारिधि का प्लावन।
सर्पाकार तड़ित चमकाते कड़कनाद कर,
तहों-धारियों में छा जाते नीचे-ऊपर
वल्गाओं में इन्द्रधनुषों के बिम्ब-विमोहन,
करते नूतन रंगों का घन में संयोजन।
औषधियों में तेज, स्वधा में तुम संजीवन,
अधु विराट में व्याप्त तुम्हारा नियम चिरन्तन।
चलते तुमसे ऊर्जा पाकर पवन निरन्तर,
कुण्डलियाँ खोले दुर्वारण भँवर-बवण्डर।
झलक दिखाते लघुता को तुम महीयान की,
महासर्ग में अनन्तत्व के अधिष्ठान की।
वरद, वेदवाहन तुम आदिदेव, करुणान्वित,
धूमकेतु, मैत्रेय, विरोचन, लोकनमस्कृत,
खुले मोक्ष के द्वार, व्यक्त, अव्यक्त, सनातन,
भूत-भव्य के धाता कालचक्र के कारण।
अहोरात्र के सूत्रधार तुम भुवनविभाकर,
किरण-बाण से बरसाते हिरण्य भूतल पर।
मार्गशीर्ष के अंशु, विष्णु फाल्गुन के चेतन,
टिके तुम्हारे अयन-बिन्दु पर प्राण और मन।
गतिमानों में प्रमुख, चराचर के स´्चालक,
सर्वेक्षक अशेष जगती के आत्मप्रकाशक।
घन प्रकाश मण्डलाकार तुम चित्रवर्णमय,
भ्राजमान तुमसे भूमण्डल कर्मसत्यमय।
दिग्विराट के हाररत्न, स्वस्त्ययन गगन के,
भाल-तिलक प्राची के, अट्टहास त्रिभुवन के।
बीज-विटप, कलि-कुसुम तुम्हारे ही अभिव्यंजन,
करते ग्रह-गण तुम्हें दीप-नैवेद्य निवेदन।
नमन तुम्हें कर वसु, विद्याधर, सिद्ध, साध्यगण,
होते महिमान्वित चारण, गन्धर्व, मरुद्गण।
देव अर्चना के प्रणम्य तुम मर्त्यपटल पर,
युग-युग के अभिमन्त्रित अर्घ्यसमर्पित तुम पर।