Last modified on 18 मई 2018, at 19:07

गर्भाधान / गिरिजाकुमार माथुर

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:07, 18 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गिरिजाकुमार माथुर |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सामुद्रिक कोख में जली जो भीष्म अग्निशिखा
लहरों के योनि-अधर खोल
बाहर आई
उफनकर तटों पर जीव-फेनों में छितराई
अंधे भँवरों की कुंडलियों के तालों में
अतलान्त विवरों के कुंड बने गर्भाशय
कोशों की शुक्र-धातु
मन्द घूमते हुए रुके जल के घेरों में
जीवों के प्रथम डिम्ब-
जीवन की प्रथम गं्रथि-
आज तक उसी जन्म नाटक की पुनरावृत्ति-
माँ की कोख गहन सिंधु
वर्जित, अंधकारमय
एक अज्ञात नींद में डूबी
तैरती हुई दुनिया
चेतना की देहरी पर
गुप्त रस के अजस्र स्रोत
मूर्छना-समाधि की ममताओं में डुबाए हुए
बनती हुई नई देह
सोती अतल बावड़ी में
डूबे हुए अधबने कमल
अछूता एक परिपूर्ण ब्रह्मांड
कोख का अँधेरा स्याह अन्तरिक्ष

ढका, अनुलंघ्य व्योम
कहीं दूर मध्य में चमकता हुआ एक सूर्य
ताज़ा एक मणि-पिंड
रोम-रोम मथे हुए प्यार की
दो भिन्न बिजलियों की टकराहट से
निकली जो उजली सी चिनगारी
कोख में जो बीज बनी
आँखों में तृप्ति बनी
छाती में दूध बनी
कैसा दहकता सम्मोहित क्षण था
कैसी पुनीत घटना
वह दो समर्पित देहों की घुलकर
शिराओं पर रुक जाने की
एक-दूसरे के झनझनाते सरोवर में
समूचे कूद जाने की
पूरे शरीरों की लिपटी परिधियाँ
टूटकर बह जाने की
थर्राती घटना-
जैसे सुबह की धूप-सजी पूजा में
वैसन्दर पर उड़ता सा गंध होम
छींटे भर घी का
नया जल आटे लोई से बना दिया
बच्चे की अनहोने सपने में
मुसकान
हिचकी, किलकारी-सी
पहिले पहले बोला ओंठ मिला
अबोल शब्द
जैसे अभी गिरी बरफ़ की रुई
निर्जन पहाड़ों में घुमड़ती नदी में पिसी रेत
गोल पत्थरांे पर उछल कर बहता

उद्दाम फेनभरा जल
वर्ष की ताज़ी लाल पत्ती
एकान्त मूँगे के द्वीप पर
पहिली बार टिका जलपोत
अकस्मात् उठी साँवली लहरों में
तट की ओर दौड़ गई मस्त हाथियों की पाँत
चाँद के अछूते चूना-पत्थर के भँवरों में
धीरे-धीरे उतरकर बैठा हुआ
आदमी के पहिले टिड्डे का
अनहोना आकार
पृथ्वी के चमकीले हिलाल का
प्रथम व्योम चित्र
ताजे़ बादलों के तैरते कपास-फूल
चैत की हलकी गंधों डूबी गरमाई में
चिड़ियों का अवश
पंखफूला निष्पाप मैथुन
पागल मधुमक्खियों से लिपटे
गुलाबों के बाग़ में
उठती उम्र की चुंबकीय आँखों का
एक दूसरे को दृष्टियों से पकड़ना
नई भरकर पूर हुई
गुलाबी मुँहवाली छातियों का
साँवले हाथों से
और और कसना

रजोदर्शन में धुँधले पड़े चेहरे के रंग का
नहाकर खिल जाना
भीतर के नरम दानेदार रेशों में
किसी उद्दाम लय का सरसराना
मांसल कटावदार बखि़यों का
धीरे धीरे खुल जाना-
काँपती ललौंही योनि-फाँक पर
एकाग्र, गरम रक्त से विभोर
भोग के अधिकार में निर्दोष
बेझिझक, निर्भय, अनायास उत्तेजना साकार

आदिम लिंग का
प्रथम स्पर्श, अर्ध प्रवेश-
घास घाँघरी पहिने
अधवसन वनयुवती का
प्रथम गर्भाधान
भारी होते नितम्ब
दूध के भराव से काले पड़ते उरोजमुख
एक अलग सी आग
गर्भ में सँजोने की
देह में घुमेर

नवजात शिशु के मुँह में
नई बनी माँ का
होते ही लिया वक्ष
कुचाग्रों में ममता का पहिला रोमांच
भोले ओंठों से खिंचने की गुदगुदी
उमड़ता हुआ प्यार
रचना का अन्तिम चमत्कार-
सृष्टि की सर्वोच्च सीढ़ी पर
भावना का बदलता हुआ
एक पूरा का पूरा संसार

समूचे ख़ोक में भरे हुए रंगा का
धीरे-धीरे एक छोर से हटना
दूसरे नए रंग का साथ साथ भरना
सृष्टि की परम सीढ़ी पर
भोग का मातृत्व में बदलना-

वह वासना से गीले पतले अधर
जो चूमे गए, भरे गए, चूसे गए
लोलुप नर ओंठों की
गरम पकड़ती कमान से
देह में प्रवेश पर
बार बार
वह नन्हे गालों पर दिया हुआ
आशीष बने

वह लम्पट उरोज
जो सम्भोग के सहन की
बने थे सीमा बुर्जियाँ
जो आदमी की कड़ी मुट्ठियों में
थे दोलित पौरुष का सहारा
-वह आँचल में छिपे अमृत का स्रोत बने

वह कामुक जंघाएँ
समेटे गोल घुटने
लाल पगतलियाँ
जो ख्ुालीं, अलग हुईं, उठीं
भरपूर समर्पण में
-वह सिरहाना बनीं एक प्यारी मासूम देह का

वह कसी हुई काठी सी सटी योनि
उत्तेजना से फड़कते
पिपासित कामोष्ठों पर
मुलायम केशों की डाले मनमोहक ओढ़नी
झेलती हुई भीतर ही भीतर
विलग होते तटों में
रतिक्रीड़ा में मथी हुई देह की तरंगे
वहीं आकर टकराते लीलाकाम के ज्वार
बीजमंत्र से पुरुष के
धीरे खुल जाते
बन्द रोमांकित द्वार
वह अर्पित निर्व्याज काम-पंखुड़ी
सृष्टि अवतारिणी
तीर्थ-देहरी बनी
देह-छिन्दी मादा
मातः भगवती बनी-