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टोपी / कौशल किशोर

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वह टोपी थी
दम-दम दमकती
भगवा रंग में रंगी
उस पर चमक रहा था
बड़े बड़े हरफों में लिखा
'अबकी बार, मोदी सरकार'

वह बांटी गई सारे मोहल्ले में
घर घर
मुझे भी दी गई

यह मेरा मध्यवर्गीय संकोच था
या लोकतांत्रिक भलमनसाहत
मैं नहीं कर सका इनकार

अब टोपी घर के अन्दर थी

इसे पहन नहीं सकता था अपने सिर पर
टांग नहीं सकता था किसी खूंटी पर
कोई जगह मिल नहीं रही थी घर में

क्या किया जाय इसका
कहाँ रखी जाय इसे
कहीं किसी मित्र की नजर न पड़ जाय
मैं परेशान

मेरी यह दुविधा नहीं छिपी रही पत्नी से
वह सहज भाव से बोली-
टोपी से काहे की परेशानी
लाओ, हमें दे दो
और उसने ले ली टोपी

उस वक्त अपनी कमर में दुपट्टा बांध
वह जूझ रही थी गन्दगी से
छत पर लगे जालों
फर्श की धूल-धक्कड़
कीड़े-मकोड़ों पर
उसका चल रहा था झाड़ू

हमने देखा
सफाईवाला जब घर से
कूड़े की बाल्टी ले जा रहा था
वहाँ नीचे दबी पड़ी थी टोपी
निस्तेज, बदरंग
मुड़ी-तुड़ी, सिकुड़ी

देर नहीं लगी
टोपी पहुंच गई थी अपने ठिकाने
इस त्वरित कार्यवाही पर कुछ शब्द फूटे
स्वतःस्फूर्त
पत्नी ने पूछा-
कुछ कहा क्या मुझसे
नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं

पर, यह अपना चेहरा था
जहाँ खिल आई थी खिल-खिल हँसी