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नज़र अपनी / यतींद्रनाथ राही

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नज़र अपनी
समझ अपनी
हृदय की भावना अपनी
किसी के हेतु पत्थर है
किसी को देव मूरत है

कहाँ से आ गये पिन
आँजुरी के हरसिंगारों में
धरी है नीद किसने दूर
नभ के इन सितारों में
उगाने को हथेली पर
कभी सरसों
कभी सपने
मुसाहिब हों अगर ऐसे
इन्हें
उनकी ज़रूरत है।
’ ममीरे बाँटते हैं वे
नज़र के दोष घुल जाएँ
पढ़ें जब भी तवारीखें
उन्हीं के पृष्ठ खुल जाएँ
तुम्हारी मोतियाबिन्दी नज़र का
क्या करोगे तुम
झुकाओ सिर
धरो टीका
घड़ी शुभ है
महूरत है।

मजीरे पीटते रहना
बधावे गीत गाने हैं
प्रतिष्ठित प्राण मन्दिर में
विजय तोरण सजाने हैं
बँटेगी जब प्रसादी
तब तुम्हें भी
देख लेंगे वे
नज़र उनकी
कोई चहरा
कहाँ तक खूबसूरत है।
29.7.2017