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बादर फूले / यतींद्रनाथ राही

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आज
गगन में
बादर फूले।

बरसों बाद
मुंडेरी नाची
आँगन कुलक-पुलक हो गाया
एक कबूतर के जोड़े ने
चुग्गा बदला
प्यार जताया
चिड़ियाँ चहकीं
कलियाँ महकीं
झूली लता लिपट कर तरुवर
गन्ध बाबरी उड़ी फिर रही
धरती नहीं
पाँव धरती पर
वन्दनवार पलाशों की है
अमलताश के
झूमर झूले।

उधर कहीं
गरजी बन्दूकें
बरसे पत्थर तड़पी लाशें
सड़कों पर कुहराम मच गया
त्राहि-त्राहि कर डूबी साँसें
लुटी अस्मिता
पिटा आदमी
जगी सियासत, सिकी रोटियाँ
कीचड़ मची उठी दलदल से
संवेदन की महा रेलियाँ
जाने कब फट पड़ें कहीं से
बारूदों के दबे बगूले।

रोज़ यही सब
यहाँ वहाँ है
और देखते हैं हम
टुक-टुक
धड़कन भी अपनी यह निष्ठुर
जाती नहीं एक पल भी रुक
मर जाता है रोज़
हमारे भीतर
कोई एक आदमी
किसने तपते अहसासों पर
डाली चादर एक शबनमी
रंग महल के जश्न
वहीं हैं
सब अपनी मस्ती में भूले।
5.10.2017