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गीत धर्म / यतींद्रनाथ राही

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न पूछो किसलिए
इतना लिखा है
और गाया है।

कलम का फर्ज़ ही अब तक,
निभाया है
निभाते हैं
ये आखर ख्ुाद ब खुद आकर
अधर पर गुनगुनाते हैं
नहीं मेरा यहाँ कुछ भी
तुम्हारे ही फसाने हैं
लिखे, गाए तुम्हीं को हैं
तुम्हीं को अब सुनाने हैं
न जाने क्यों
कलम को
गीत का ही पंथ भाया है।

सुनो!
यदि ध्वनित होता है
समुन्दर शंख के भीतर
महकता पारिजातों में
किसी का एक श्रम सीकर
किसी के मानसर में
खिल गया यदि एक इन्दीवर
हृदय के तार पर
बजने लगे यदि बाँसुरी के स्वर
किसी का सुप्त सम्वेदन
कहीं हमने जमाया है।

अँधेरे पंथ पर दीपक
कहीं खद्योत ही बनकर
किसी की थाम कर उँगली
किसी को गोद में धरकर
छलकते प्यार ममता और
करुणा से सरस प्लावित
हमारे शब्द यदि करदें
किसी के प्राण अभिमंत्रित
तो समझो धर्म अपने गीत का
हमने निभाया है।
15.10.17