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कैसी मजबूरी / यतींद्रनाथ राही

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जब तक गाता रहा अधर पर
दर्द तुम्हारा
मेरे भीतर
मैंने भी कितने यश लूटे
गीतों की खै़रात बाँटकर
आज
कहाँ तुम
और कहाँ हम
दोनो ओर ध्रुवों की दूरी

मेरे साथ
जगत ने गाया
जाने क्या खोया
क्या पाया
अर्थ बाँचती रही बैठकर
शब्दों की अनबोली काया
कितना कहा
कहाँ कह पाये
बात रह गयी
सदा अधूरी

स्वर्ण ढोलती किरन भोर की
और सांझ के झिलमिल तारे
पलकों ने
सुधियों के कितने
आते जाते पाँव पखारे
कहाँ गयी सिन्दूरी छवियाँ
और कहाँ वह
गन्ध कपूरी

नुचे पंख-डैने पाँखी के
पड़ी कहीं
शर-विद्ध हिरनियाँ
लुटी चूनरी कहीं राह में
बिखरी है
पायल करधनियाँ
झुलस रहे
भीतर बाहर से
चारों ओर
आग तन्दूरी।
7.12.2017