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भरोसा / मोहन राणा

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दिनभर बोलता जिद्दी रुरुआ नींद में भी जगा
सांस की जगह ले चुका मन की बातों में
अब मैं बिना फूँक के भी बजता बाजा हूँ
अपने ही शोर में बहरे कानों के भीतर

मैं बताऊँगा उन्हें सपने देखता
मैं उन जैसा नहीं अकेला
पर अलग
रचता उन जैसा ही सहेजता
छुअन भर एक भरोसा

यही पल हमेशा आख़िरी
और इससे पहले ना जिया कभी
जितना मैं पास उतना ही दूर
कोलाहल में उस अकारथ देह रेखा से,
गुमसी मेट्रो में एक हाथ से थामे अपनी स्पर्श निजता
अपने जीवन से असहमत कितनी बार और हर बार भूल जाता
भाग कर याद दिलाते जियी हुई सीख अपने अकेलेपन को
ऐसे ही पल जब मैं पहचानता हूँ
फिर लौटते अपनी इच्छाओं के व्योम
हो जाए पार चौखट पल्ली पार
मन जाने कहाँ लग जाता है यही सोचकर

अतीत पर चलना होता है आसान
मनचाही $खुशी और दुख को उसमें भरना,
धीमी आवाज़ में अधूरी कहानियों का निरंतर पाठ है उसका तह$खाना
जहाँ रात का पेड़ हरा भरा जिस पर सोई हैं स्मृतियाँ,
जब कभी अँधेरे में भी पहचान लेंगे एक दूसरे को वहाँ
बढ़ाते हाथ गिरते कंधों को थामने,
हर रोज़ मान कर चल पड़ते
आँख खुलने को अपने जीवित होने का प्रमाण,
अपनी सुनाने की बारी आने का
है ना हमें भरोसा