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खड़िया / मोहन राणा

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रोवन की बेरियाँ लदी डालों में
कांपता है समय अगस्त की बेचैन रोशनी में
डर के सरपट ची$खती काली चिड़िया मेरी आहट से
भरती एक उड़ान पड़ोस की बाड़ में,
कई बरस रहते हुए मैंने नहीं जाना कभी
उसके पार भी इस पार है यहाँ कोई
सोचता यही मुझ जैसा ही

कहीं पार हो जायें बनें कोई निशान
उधर किसी को याद आए किसी परदेस अपने,
फ्रिज़ पर लगी पीली पड़ती जा रही है जहाँ की सीपीया तस्वीर
और हम तलाशते थे लापता घर एक नज़र कभी उस पर डाल
जिसके बाहर लिख दें खड़िया से नाम अपना
जो लिखा नहीं अभी किसी किताब में।