भाव स्मृतियाँ पुरनियाँ हैं शब्दाक्षरों की
विषाद की उम्र अ से ज़्यादा है
क्षोभ बड़ा है आ से
प्रेम धरती का सहोदर हो सकता है पर
नफरत पानी और आग से भी पुरातन है
इसी के चलते धरती टूट कर अलग हुई
किसी बड़े आग के गोले से।
नफ़रत धरती का पुश्तैनीं गुण है
प्रेम कृत्रिमता है
सभ्य होने के प्रयास में सीखा गया गुण
कांधे पर लबादा टांगे-टांगे जब चिलकती है बाजू
तो लबादा बदल जाता है कई-कई झंडो में
युद्ध धरती की सहज होने की प्रक्रिया है।
जब रोशनाईं नहीं बनी थी
न कंठय ध्वनियों की कोई बात थीं
भाव ही तंतु था समाज का
मृत्यु का अर्थ विलाप था
जन्म का अर्थ हर्ष की तुमुल ध्वनि
देह
लोभ, क्षोभ, मोह, कुंठा, निंदा का घर था
प्रेम की एक लहर भी बहती थी ऊपर-ऊपर
पर अंतस में वही नफ़रत ठाठें मारता है बुर्जुआ बनकर
बाकियों सारे भाव उसी की पायलग्गी करते है।
प्रेम एक नया-सा
कच्ची उम्र का भाव है सब भावों में
जैसे हिमालय है सबसे कच्चा पहाड़
नफ़रत सतपुड़ा है
उम्र में प्रेम से करोड़ों वर्ष बड़ा।
बुजुर्गों का सम्मान करो
मेरे धर्म की सबसे समकालीन व्याख्या है।