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पेंग्विन / अखिलेश श्रीवास्तव

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जब छोटा था और
सीख रहा था चलना
तो पंजे रखते ही भुरभुरी बर्फ
घुटने तक समा जाती थे
मैने गदेली भर पत्थर भी नहीं देखा
जहाँ बर्फ न हो।

मेरे पुरखे जो सुनाते थे
प्रलय की कहानियाँ
सिर्फ उसमें होती थी
बर्फ के गल जाने की खबर
हम सारे झबरीले पेग्विनों के बाल
झड़ जाते थे कहानियों में
और नहीं होती थी
एक भी मछली बर्फ की तलहट में
सफेद पहाड़ बदलने लगतेहहहब थे
शैतानी काले रंग में

अब जब मैं बूढ़ा रहा हूँ
तो एक-एक लक्षण दि हखते है प्रलय के
मैं भी सुनाना चाहता हूँ वही कीओशओकहानियाँ
पर अब बच्चे इसे नियति नहीं परिणित मानते है
तर्क गढ़ते है और पारिस्थितिकी के प्रश्न पूछते है पूरी दुनिया से

वो ऊलावों से पूछते है
शेरों से पूछते है और
पूछते हैं घड़ियालो से
किसी ने नहीं उज़ाड़े वन

तो फिर कौन काट रहा है करोड़ो दरख्त
पूरी धरती सुलग रही है अलाव बनकर
कौन ताप रहा है इसे
कौन किस्सों पर ताली ठोक रहा है
कौन कहकहे लगा रहा है

अलाव के एक उड़ते चिनगारी ने
पकड़ ली है घर में बिछी बर्फ की चादर
फर्श चटक रही है जगह-जगह से
पैर रखता हूँ तो सीधे चट्टान पर पड़ते है पंजे
मुझे घर की नंगी नींव दिखाई दे रही है
और अपनी कब्र भी!