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नारी / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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मैं प्रतीकों में न तुमको
 बाँध पाउँगा कभी भी
 बाँध पाएँगे नही
 तुमको कभी उपमान
 मात्र नारी हीं नहीं तुम
 तरु संज्ञाहीन
 सृष्टियों की सृष्टि हो तुम
 दृष्टियों में लीन
 तुम तिमिर की ज्योति,
 मन का दीप
 दुग्ध फेनिल धार-सी
 अति स्निग्ध
 मोम-सा मन और
 तन नवनीत
 छू न सकती है तुम्हें
 अनुमान की सीमा कभी भी
 व्याप्त तेरी साँस में संगीत
 संज्ञा से परे तुम
 लाजवन्ती!
 मानिनी प्रिये वादिनि
 मधुहासिनी, मनवासिनी हो
 तुम प्रिया हो, नायिका हो
 चेतना हो सर्जना हो
 अर्चना-सी मौन कोमल
 कामना से भी मधुरतम
 कल्पना से अधिक सुन्दर
 भावना से भी तरलतम