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चित्रकार / अशोक कुमार

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जब मैं एक वर्तुल बनाता हूँ
तो उसकी कोई ठोस दीवारें नहीं होतीं
सब कुछ वायवीय होता है
जिसके भीतर तरल उमड़ रहे होते हैं

जब कोई आयत बनाता हूँ
तो उसका मतलब भी यह नहीं होता
कि न जुडें उसके टुकड़े
जब वे पास आ रहे होते हैं

जब मैं खींच रहा होता हूँ आड़ी तिरछी कोई रेखा
तो उन रेखाओं के पार
होता है एक व्यवस्थित सुनहला संसार
और बेचैन होता है
इस पार मेरा चित्रकार।