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पानी भरावन 2 / बैगा

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बैगा लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

गाई डारे झिर-झिर, नदी नय भरे घयला रे हाथ।
पापी है नंदी आगू, पवन पाछू पानी रे।
पानी ला पीवय पसर करे के, तय जो गावस ददरिया।
कसर करी के धीरे गाईले।
       कौआ के पानी झीकी-झीकी होय,
दूरिया के माया देखी के देखा होय।
धीरे गाई ले।

शब्दार्थ –नन्दी-नदी, नय भरे =न भरे, घयला=गागर, आगू= आगे, पाछू= पीछे, पीवयपसर करी=खूब पानी पीना, दूरिहा=दूर के।

दुल्हन की सहेली पानी भरके लौटते समय यह ददरिया गाती है। अरे सहेली! समुद्र के पानी में बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही थी। पानी बहुत हिल-डुल (झिलमिल) रहा था। लहरें पानी ही भरने नहीं दे रही थी। पानी में गागर डूब ही नहीं रही थी। क्योंकि पापी पवन बहुत तेज़ गति से चल रहा था, उसके पीछे-पीछे पानी लहर बन के चल रहा था।

पानी तो खूब पीना चाहिए और ददरिया गाने में कोई कमी या कसर नहीं रखना चाहिए। कुएँ से पानी भरते समय भी कुएँ के पानी को झकेलना या हिलाना-डुलाना पड़ता है। इसी प्रकार देखा-देखी भी मन में हिलोरे या माया पैदा होती है। दूर के ढ़ोल सुहावने होते हैं।