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हड़द चढ़ौनी / बैगा

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बैगा लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

तरी नानी तरी नानी तरी तरी नानी,
तरी नानी नाना रे नान। दैया
कहाँ है हरदी तोरे जनामन,
कहाँ है तोरे थान। दैया 2
घैली कछारे है तोरे जनामन,
सिल समदूर है तोर तोर थान।, दैया 2
अँगरी-अँगरी चढ़ जा रे हरदी,
डबरीना सिल चढ़ही जाय। दैया 2
जंगिहा जंगिहा चाड जा रे हरदी,
कनिहा न सिल चढ़ही जाय। देया 2
छतिया छतिया चढ़ जा रे हरदी,
माथेन सील चढ़ही जाय। दैया 2
माथे मा सील चढ़ही जाय।

शब्दार्थ – जनमान=जन्म, थान=स्थान, गाँठी= गले की, सिल=भीगना, अंगरी=ऊँगली, जांगहा=जांघ, घैली कछार=एक जंगल का नाम, कनिहा=कमर।

दोसी सुआसिन एक थाली में लहलड़े और नारियल-अगरबत्ती रखते है। साथ ही एक बोतल मंद (दारू) के साथ दुल्हन के गले की भवरी माला, लाल मोती की गाठी माला, चाँदी की सूतिया माला रखते हैं। घर के देवी देवता का सुमिरण करते हैं और कहते है- आज इस घर में विवाह होने जा रहा है। देखना हमसे कोई छल छिद्र न करना। हे धरती माता! ठाकुर देवता! माता महरानी ! चाँद-सूरज देवता! दस ऊँगली की विनती, पाँच ऊँगली की सेवा है। ‘देख जात रवा आगू आत रवा पाछू, संकट में सहारे रहबे। कुछ बाधा ना आय।‘ ऐसे वचन कहते हुए हल्दी दूल्हा-दुल्हन सुआसिन लगाती हैं। गीत में आए शरीर के अंगों पर क्रमश: हल्दी चढ़ाई जाती है।
हल्दी कहती है – घैली कछिया के घर मेरा जनम हुआ है और समुद्र मेरा स्थान है। हे हलदी! तू पहले मेरी दुल्हन की अँगुली में लग जा। एक-एक ऊँगली में लग जा। बाँह, छाती, जाँघ, कमर और माथे पर चढ़ जा। सिल चढ़ जाओ यानि पूरे शरीर में भींग जाओ। फैल जाओ। इससे हमारे दुल्हा और दुल्हन का शरीर चमक जायेगा। हल्दी लगाने के बाद दोसी आशीष वचन कहता है – दूल्हा-दुल्हन की हंस जोड़ी, परेवा (तोता-मैना) जोड़ी सारस जोड़ी सदैव बनी रहे। जैसे वे जीते हैं, वैसे हमारे दुल्हा –दुल्हन की जोड़ी जीती रहे।