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विदाई / बैगा

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बैगा लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

गवाए गाना ला, धीरे गाय ले दाई तो।
कहाय लढ़ाना बेटी, दादा कहाय हूसिया।
भाई तो कहाय पिंजड़ा का मैना।
का बोली दैके निकाल गय।
पानी ला पीवत पीवत भरा ले।
तै तो आवाजाही करबे जीवन भरा ले।
       कौन बना आमा, कौने तो बना जाम।
कोने बन खा निकले लखन सिया राम।
धीरे गाय ले दाई तो कहाय।
लढ़ाना बेटी दादा कहाय हूसियार।
भाई तो पिंजरा का मैना का बोली
दै के निकाल गय।

शबदार्थ – लढ़ाना=लाड़ली, बोली=वचन, पीवत-पीवत=पी-पीकर, आवा-जाही=आना-जाना, जीवन भरा,=जीवन भर, बना-वन-जंगल।

विदाई के समय माँ-पिता और भाई कहते है। पहले माँ कहती है- गीत जरा धीरे गाना। आज मेरी लाड़ली इकलौती बेटी तू गोदी छोड़कर कहाँ जाती हो? पिता कहते हैं- मेरी होशियार बेटी! आज तुम ससुराल जा रही हो। भाई कहता है- ओ मेरी पिंजरे की मैना बहन! तू आज मुझे क्या वचन (आशीर्वाद) देकर जा रही हो।

बेटी कहती है- इस घर का पानी-पीते मैं इतनी बड़ी हुई हूँ। तुम लोंगो ने मुझे अच्छा खिला-पिलाकर बड़ा किया है। अच्छे संस्कार दिये है। जिंदगी में आना-आना तो लगा रहेगा। कौन से वन में आम का पेड़ लगता है और कौन से वन में जाम के फल लगते हैं। यह न आम के और न जाम के पेड़ को मालूम है। आम और जाम को क्या मालूम था कि एक दिन राम जैसे राजा सीता-लक्ष्मण सहित वन में आकर वन के फल आम, जाम और बेर खायेंगे। राम-सीता और लक्ष्मण को भी वनवास जाना पड़ा।
इसी तरह मुझे कभी न कभी ससुराल जाना ही पड़ता। इसलिए तुम सब फिक्र मत करो। मुझे खुशी-खुशी विदाई दे दो। विदाई का समय है, जरा धीरे-धीरे भरे गले से विदाई गीत गाना। मेरे भी आँखों में आँसू थम नहीं रहे हैं, तुम सब सुखी रहना।