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रीना दशहरी / बैगा

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बैगा लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

री रीना, माय ओ, री रीना रे माय मैया मोरे।
री रीना, माय ओ, री रीना रे माय मैया मोरे।
पहली मैं गायेंव रे माय, मैया मोरे, धरती क सेवा माय। मैया।
दूसरा मैं गायेंव रे माय, मैया मोरे, ठाकुर देव सेवा रे माय। मैया।
तीसरा मैं गायेंव रे माय, मैया, खेरीमाई सेवा रे माय। मैया।
चौथे मैं गायेंव रे माय, मैया मोरे, चाँद-सूरज सेवा रे माय। मैया।
पाँचवा मैं गायेंव रे माय, मैया मोरे, चारों खूटक देवता सेवा रे माय। मैया।
भरहूवा नी काट्य रे माय, मैया मोरे, नागा बैगा रे माय। मैया ॥
खूटन काटे रे माय, मैया मोरे, खूटल पूरी नागर रे माय। मैया।
सांतनी काटे रे माय, मैया मोरे, सातन पुरी नागर रे माय। मैया।
सरैनी काटे रे माय, मैया मोरे, शरणपुरी नागर रे माय। मैया।
छावनी काटे रे माय, मैया मोरे, धवलपुर नागर रे माय। मैया।
तीनसना काटे रे माय, मैया मोरी, तिसलपुरी नागर रे माय। मैया।
हरनी काटे रे माय, मैया मोरे, हरनपूरी नागर रे माय। मैया।
बीजनी काटे रे माय, मैया मोरी, बजलपुर नागर रे माय। मैया।
भरहुया मोड़ी बैठे रे माय, मैया मोरी, नागा बैगा रे माय। मैया।
तेखर पाछू बैठे रे माय, मैया मोरे, जातय किसान रे माय। मैया।
ओखर पाछू बैठे रे माय, मैया मोरे, जातय आगरिया रे माय। मैया।
ताखार पाछू बैठे रे माय, मैया मोरे, जातय अहीरा रे माय। मैया।
ओखर पाछू बैठे रे माय, मैया मोरे, जातय पनिका रे माय। मैया।
ताखर पाछू बैठे रे माय, मैया मोरे, जातय पठारी रे माय। मैया।
ताखर पाछू बैठे रे माय, मैया मोरे, जातय पठारी रे माय। मैया।
ओखर पाछू बैठे रे माय, मैया मोरे, जातय पठारी रे माय। मैया।
छव नगरी बैठे रे माय, मैया मोरे, जातय तेली तमेरी रे माय। मैया।
तेली तमेरी रे माय, मैया मोरे, बहोतय चिवड़ई रे माय। मैया।
चारोनी खूटे रे माय, मैया मोरे, खीला ठोकाए रे माय। मैया।
बसी गय बसी गय रे माय, मैया मोरे, अवधपूरी शहर रे माय।

शब्दारथ – गायेंव=गाते हैं/स्मरण करते हैं, भरहुआ=एक पेड़, साजन= सजन का वृक्ष, नागा बैगा=बैगाओं का पूर्वज, धावनी=धावड़ा, तेखर=उसके, चारोनी खूँट=चार दिशाएँ, खीला=कील।

हे माँ! सबसे पहले हम धरती माता का सुमिरण करते हैं। उसके बाद गाँव और गाँव की सरहद की रक्षा करने वाली देवी खेरमाई का स्मरण हैं। गीत गाते हैं। चौथे स्थान पर हम चाँद और सूरज को याद करते हैं, जो सबका अंधकार दूरकर प्रकाश देते हैं। पाँचवे स्थान पर चारों दिशाओं के रखवाले दिक्पाल देवताओं को स्मरण करते हैं। गीत गाते हैं उनकी सेवा करते हैं।

इसके पश्चात नागा बैगा ने पेड़ काटकर धरती जोतने के लिये साधन बनाया। उसी से हल और उस की बची हुई लकड़ी के खूँटे से औज़ार बनाये और धरती में बीज उगाना प्रारम्भ किया। जिन लोंगो ने सजन का पेड़ काटा, उन्होने सजन का सुंदर हल बनाया। जिन्होने सरई का पेड़ काटा उन्होने सरई का देवरूप हल बनाया। कईयों ने धावन के पेड़ को काटकर कठोर हल बनाया। कई ने हरनी वृक्ष को काटकर हरनी जैसा हल्का हल बनाया। बीजनी के पेड़ काटकर बीजा जैसा मजबूत हल बनाया। बीजा की लकड़ी से ही हल का जुआ बनाया। भरूआ का पेड़ काटकर नागा बैगा ने पहले-पहल घर बनाया। गाँव बसाया इसके बाद गोंड जाति के किसान लोग बसे। फिर लोहे के औज़ार बनाने वाले अगरिया बसे। इसके बाद गाय-भैंस चराने वाले अहीर, कपड़े बुनने वाले पनिका, मेहनत-मजदूरी करने वाले पथरी, फिर बाजे बजाने वाले ढुलिया बसे। इसके बाद नगर में घोड़े पालने वाले आये, और सबसे अंत में तेल पेरने वाले तेली तथा पान उगाने वाले तंबोली बसे। तेली-तंबोली भी नगर के लिये बहुत आवश्यक जातियाँ हैं। इनके बिना कोई गाँव नहीं बस सकता। फिर गाँव या नगर के चारों कोनों में नागा बैगा ने गाँव की सुरक्षा के लिए अभिमंत्रित लोहे की कीले थोक दी। इस प्रकार अवधपुरी की तरह पूरा सुरक्षित बैगा गाँव बस गया। आवश्यकता के अनुरूप पृथवी पर कर्म के मुताबिक जातियाँ बनती चली गई।