साँझ का मटमैलापन और
अर्से बाद अंतर्नाद करता हुआ
अंतर्मन ...
आज जहां
दूर कहीं मंदिर की
घंट-ध्वनियां और
आरती नगाड़ों के बीच
आत्मपीड़ा और आत्महीनता की
विद्रोहात्मक परिणति में
डूबता जा रहा है
वहीं तेजाब से खौलते
मन के समुद्र में
निरंतर जल रही भावुकता
चिथड़े-चिथड़े हो कर
उड़ती जा रही थी...और
सारी संवेदना पिघल कर
मोम बनती जा रही है
आत्मविश्लेषण की इस
दोधारी तलवार से
जब-जब तुम्हारे नाम की
लकीरों को काटना चाहा
अनगिनत नई लकीरों
ने जन्म ले लिया...
जाने किस बाबत
घृणा और प्रेम पर सोचते हुए
बांध लिया पत्थर
खुद की उड़ान पर
कस दिया फंदा
अपनी ही आत्मा के गले पर
आज मीरा के हृदय की
बेधक पीड़ा
मन को बेचैन तो कर रही
पर पूरी तरह सहभागी
बनने से इंकार करती है
आज हृदय समंदर
संदेह की झाग से
अटता चला जा रहा है
कितना कुछ
जलकुंभी की तरह
फैलता हुआ अतीत की
सारी घटनाओं को
निगलता जा रहा है
ऐसे में क्या खोजना और क्या पाना
आज प्रश्न?
दुःख से नही आश्चर्य से है
क्या जीना चाहिए ऐसे भ्रम को
जिस पर स्वयं को ही विश्वास न हो...?
अब मातम में डूबी और
कृपा पर जीती हुई
अपहरित की गई चाहनाओं के पार
जाने का आसान रास्ता होगा... 'अलविदा'