जा रही हूँ
कभी नहीं आऊँगी
नहीं सुनूँगी
दूर-दूर से आती
किसी की
कोई भी आवाज
छोड़ आऊँगी
अपना सब कुछ
अपनी स्मृतियां
अपना प्रेम
अपना रुदन
करुण विलाप
अपना स्वप्न
सब कुछ
छोड़ आऊँगी
पवित्रतम प्रेम की
उस आखिरी छुअन को भी
जिसे प्रेम का नाम
दिया गया था
छोड़ आऊँगी
मन के
उस रेगिस्तान में
एक गहरी
सांस भरकर
निस्वार्थ...
निर्व्याज...
माधुर्य के उस
चरम क्षण को भी
जहां अब
दूर दूर तक
अप्राप्य है
प्रेम की
एक आवाज भी...
की छोड़ कर
वहां सब कुछ
सहज लौटना ही
हमारे पवित्रतम प्रेम को "श्रद्धांजलि" होगी...!