जादू की छड़ी
खोज रही हूँ
जिससे हो मेरे
रंगीन सपनो की शुरुआत
काल की धुरी पर
असंभव कुछ भी नहीं की...
धुन में जी रही हूँ
खुद के सपनों के वृक्ष को
पीले पत्तों सा
स्वर्ण रंग दे
वसंती मोह जगाना
चाहती हूँ
उगते हुए कल के
लंबायमान सूरज पर
उकेरना चाहती हुँ
अनगिनत सपने...
गर्मी की ताप से
जलती जेठ दुपहरी में
सुदूर विपिन में गिरे
दहकते पलाश से मेरे सपनों को
एक छोटा सा नीड़ बना
सुस्ताने देना चाहती हूँ...
अपने सारे सपनों को
समेटना चाहती हूँ
अपने आँचल में
जो याद दिलाये
मुझे मेरे सपनों की..
मेरे सपनों की मंजिल
यदि राह चलते
चूक भी जाए
तो गम कैसा...
अपनी ही लड़ाई से भय कैसा...