हाँ कल की ही तो बात है...
उसके यादों की थाती को
अपने सीने से लगाए
मन के आँगन में टहल रही थी
तभी मैंने देखा, आज मेरी सारी
कवितायें और उसके शब्द
आँगन में जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े हैं...
कुछ उदास कवितायेँ
मन-आँगन में तारों पर लटक रही थी...
तो कुछ इत्मीनान से अलसाई हुई
धुप सेंक रही थी...
सारे शब्द बेफिक्र से थे
सब को जैसे-तैसे समेट कर
मैंने ,मन की आलमारी में छुपाना चाहा...
पर आज तो
मेरी कविता मुझसे ही बगावत कर बैठी
सारी कविताएं मुझ पर
हंस रही थी और मेरा ही मुंह चिढ़ा रही थी
मानो कह रही हो
क्या मिला मेरे शब्दों से खेलकर---
जिसके लिए तुम हमें तोड़ती-जोड़ती रही
क्या उसने समझा तुम्हारी भावनाओं को...
जी में आया सबका गला घोंट दूँ
औरों की अवहेलना तो
जैसे-तैसे मैं सह जाती----
पर अपने ही शब्दों से अपना तिरस्कार
नहीं सह पाई मैं...
सारी कविताओं को अपने आँचल में समेटा
और चल पड़ी उनका दाह-संस्कार करने--
तभी कुछ मचलती हुई कविता
मेरे गले लग रो पड़ी---
मेरा दिल किया गोद में लेकर
इसके आँसू चूम लूँ---
अचानक एक गर्म आँच सी कविता
मेरे शरीर से लिपट गई,और
सुइयों की तरह चुभने लगी---
मेरा पूरा शरीर पसीने से तर हो गया
सारे शब्द आपस में ही उठा-पटक करने लगे..
मैंने सोचा क्या करना अब यहाँ रूककर
मुंह फेरकर जाने लगी...तो
कुछ अनगढ़े शब्दों ने मेरा रास्ता रोका
और कहने लगा
तुम ही मुंह फेर लोगी तो हमारा क्या होगा...
मैं रुक गई----एक टीस सी उठी मन में --
देखा कुछ कविताएं छत की मुंडेर से
अपलक निहार रही है मुझे---तभी एक
फड़फड़ाता हुआ शब्द मेरी गोद में आ गिरा
अंदर से आवाज निकली---
हे भगवान्!
मेरी कविताओं को शांति देना..!
चाँद हाँफते हुए शब्द दौड़ते हुए आये और
कान में बुदबुदा गए---
जो मेरी कल्पना से परे था...
कहा तुम निश्चिन्त होकर जाओ
और बेफिक्र रहो...
अतीत को भूलकर
वर्तमान पर पकड़ बनाओ-----
मैं पूछती हूँ, क्या अतीत को भूलना आसान है...??