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जीवित हो जीवित हो / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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तुम थे अटलश्री
अटल ही रहोगे सदा
गये ही कहाँ हो तुम
जीवित हो !
जीवित हो !!

कुटियों में, महलों में
खेतों खलिहानों में
मिलों फैक्टरियों में
जुटे हो खदानों में
काल के कपाल पर
लिखे अमिट अक्षर हो
चेतन से ध्वनित हुये
सारस्वत स्वर हो
गुंजित हो
नन्दित हो
जन-जन के जीवन में!
जीवित हो!
जीवित हो!!
राष्ट्र के सृजन हेतु
बहते हो पसीने में
प्रेरक बन समा रहे
मरने में जीने में
धड़कन की थपकी पर
श्वासों प्रश्वासों में
उतर गए गहरे तुम
मन के विश्वासों में
  अर्पण में तर्पण में
जीवित हो जीवित हो!

एक थे अनेक हुये
बिखरे इस अग-जग में
सुरसरि की लहरों में
निस्सीमित सागर में
अधरों की वंशी पर
प्राणों के सरगम में
भावों के नन्दन में
रोम-रोम वन्दन में
जीवित हो!
जीवित हो!!

फूल भरी अँजुरी में
कुंकुम में अक्षत में
पलकों से ढलकी इस
प्यास भरी चाहत में
चन्दन में अर्चन में
दीपक में वन्दन में
मातृभूमि मन्दिर के
जीवित हो कन कन में!
जीवित हो जीवित हो!!