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जरूरत / रामकृष्ण

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आझ फिन
सिमाना के कोनाटी से
उठलो हे
धूआँ-गरगटाइन
जे खेते-बधारे
सूँघ रहलो हे
माटी के सोन्ह गन्ह
दूरा-दलान के असरा
अँगना के बखरा
भनसाघर के सबाद
कुलदेवता घर के असिरवाद
कोहवर के सिनेह-अखरा।

मौनी भर धान में
गजऽ मत मनेमन,
बखते पर मनो बरकऽ हे।
सान्ही-कोना में
नुकाबऽ मत, करमलत्ती के लर
ससरे दऽ, पसरे दऽ।

गुमसाएल गरमी के उमख
न जएतो
खिड़की-दरोजा भिड़काबे से
खोले पड़तो
खुले पड़तो
सगरो
सबतरहे
सौंसे।
अखनी समय न हौ
कि बाँटवऽ गाँव,
टोला,
बरहमथान के पीप
करीमन चा दरगाह
गुरूजी के सबद
गिरजाघर के घंटी
नदी के पानी
आदित के घाम
पुनिआँ के चान।
हरखे बरखऽ हे
अकास पताल भींज के
हो जाहे समगम
फिन, बिछ जाहे-
हरिअर परान
कउन अप्पन, कउन आन?
सबके/सबला/एक्के चिन्हानी
आदम राज से एक्के खिस्सा
कुलबुला रहल हे -
आझो।
नीन तोड़ऽ भाई! जगऽ
अन्हरिआ में
तरेंगन टोवे के बान
छोड़ऽ।
दीआ बार के देखऽ
सुपली तर के जमीन।
बड़ी सरधा से उमगऽ हौ
समुन्नर के लहर
पछेआ-पुरबा बतास
सूरज-चनरमा के इंजोर
तऽ कहिआ तक
ऐंठल रहबऽ?
एकसिराह मन तोड़ऽ
इरखा के ससर डोर
खुलल खरिहान में बाँचऽ
‘गीता’।
धरती बिछल हथ
पसरल हथ अकास
तोरे ला,
अवहिओ-होजा तूँ
चान-सूरुज।