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जिनगी के अरथ / रामकृष्ण

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समय के गाँव में
परिकल पहुना निअन
नया-पुरान सरहज-साली के
हँसी-मजाक चाटेला
दिन कट्टा मेला, टालेला
जखनी सवार हो जाहे सुर
इयाद के रील उघरऽ हे।

एगो अरखा के रूप
फूल निअन खिलल
चान निअन अगराइत
उगऽ हे मन के छानी पर
रसे-रसे पसरऽ हे
तऽ गुदगुदी के लर
छहर-जाहे-करमी के लत्तर निअन
आँख के पुतरी/देह के सौंसे रोआँ
सिहर जाहे।

होस के बुतरू
जहिआ जुआन भेल हल
महुआ के गन्ह औ नीम के
फुलाएल छहुरी में नेहा के
ऊ हो जुआन भेल हल।

मनखी-मटकी के भाखा
ताना-गाभी के खरिहान
कुच्छो न हल तहिआ।
हल कउची? त एगो -
सिनेह में पगाएल
रसमें बोथाएल
एक्के रंग-रँगल
दू मन के एगो बात।
‘(ऊ हम्मर, हम उन्हकर)’

तहिआ ई बात -
काँच कनैल अइसन
हवा के छुए से भी कँपऽ हल।
धीरे-धीरे, बात लगल पके,
कन्सी लगल फूटे
फूल के गन्ह-उगे, चटके लगल
जन्ने-तन्ने।
फिन तो जन्ने-तन्ने के हवा-बतास
भरे लगल कान
आउ ऊ एगो बात के
सौ तरह के अरथ
कुरचे लगल-धरती अकास,
मुदा-जिनगी के अरथ
एगो झूठ एगो सच बने लगल।