तरुनाई सी खिली जुन्हाई,
घुले पुलक से प्रान ।
किसने चूमा चान्द कि मुख से,
मिटते नहीं निशान ।
किरन-किरन से रूप बरसता,
नखत नखत से प्यार ।
डूबा जाता गगन ज्योति की,
लहरों में सुकुमार ।
पीपल का हर पात चमकता,
जैसे जल में सीप ।
देह देह से दूर प्रान के,
फिर भी प्रान समीप ।