सखे, न संदीपनि रहे, रहे न विश्वामित्र।
कृष्ण-सरीखा; राम-सा, कैसे बने चरित्र॥
जान सके शासक न जो, सत्यासत्य-सुरीति।
समझ सकेगा ख़ाक वह, क्या है नीति-अनीति॥
आरक्षण की आग से, सब कर डाला राख।
निज अस्तित्व मिटा लिया और मिटा ली साख॥
पाते ही सत्ता सभी, हैं बहकाते खूब।
अपने-अपने धर्म का, ध्वज लहराते खूब॥
दिखते हैं जो हर घड़ी, खुशियों में तल्लीन।
वक़्त बुरा जब आ पड़े, दिखें वही ग़मगीन॥
जिस समाज के सिर चढ़ा, निज संस्कृति-उन्माद।
उस समाज की मिट गयी, एक, एक मर्याद॥
शुभकर, सुखकर ही लगे, सत्पुरुषों का संग।
मिल जाये जो शठ कभी, पड़े रंग में भंग॥
मनुज कहे किससे कहे, अपने मन की बात।
अपने ही करने लगें, जब छुप-छुप आघात॥
भिन्न, भिन्न हैं मत यहाँ, हैं कुविचार अनेक।
इस गडमड माहौल में, कुण्ठित हुआ विवेक॥
राजनीति के मंच पर, देखे अजब चरित्र।
होकर शिष्ट-विशिष्ट भी, करते कर्म दरिद्र॥