ओ विशालाक्षी
नील कंठाक्षी
शुभांगी !
शाप
जो तुमने दिया
- अंगीकृत !
ओ पयस्विनी
कल्याणी !
विषज उपहार
जो तुमने दिया
- स्वीकृत !
- (23) अविश्वसनीय
प्रेक्षागृह में
प्रेक्षक नहीं,
मात्र मैं हूँ !
मैं —
अभिनेता,
नायक !
जिसका जीवन
प्रहसन नहीं,
त्रासद.... शोकान्त !
मैं ही जीवन की
मुख्य-कथा का निर्माता
टूटे-स्वर से
गा....ता
समाधि गान !
जिसकी करुण तान
अनाकर्षक
रस विहीन !
मैं ही भोजक
भोज्य !
आदि... मध्य... अंत
विषाद सिक्त
नील तंतु से निर्मित,
बोझिल मंथर गति से विकसित !
पर,
मादक प्रकरी-सी
तुम कौन ?
रंभा ?
उर्वशी ?
एकरस कथानक में अचानक !
यह सब ‘सहसा’ है,
अनमिल
अस्वाभाविक है !