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अंगीकृत / महेन्द्र भटनागर

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ओ विशालाक्षी
नील कंठाक्षी
शुभांगी !
शाप
जो तुमने दिया

अंगीकृत !

ओ पयस्विनी
कल्याणी !
विषज उपहार
जो तुमने दिया

स्वीकृत !



(23) अविश्वसनीय

प्रेक्षागृह में
प्रेक्षक नहीं,
मात्र मैं हूँ !
मैं —
अभिनेता,
नायक !

जिसका जीवन
प्रहसन नहीं,
त्रासद.... शोकान्त !

मैं ही जीवन की
मुख्य-कथा का निर्माता
टूटे-स्वर से
गा....ता
समाधि गान !
जिसकी करुण तान
अनाकर्षक
रस विहीन !

मैं ही भोजक
भोज्य !
आदि... मध्य... अंत
विषाद सिक्त
नील तंतु से निर्मित,
बोझिल मंथर गति से विकसित !

पर,
मादक प्रकरी-सी
तुम कौन ?
रंभा ?
उर्वशी ?
एकरस कथानक में अचानक !
यह सब ‘सहसा’ है,
अनमिल
अस्वाभाविक है !