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चोरे महथा / ईश्वर करुण

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था
एक चोरे महता.
जाति की उपाधि
चिपकी हुई थी जिसके नाम के साथ.
माँ ने नाम रखा
‘चोरे’

इसलिए नहीं कि वह चोर था
वरन इसलिए कि वह
चोर नहीं बने
यही सोच थी उस बूढ़ी माँ की
उसके नामकरण के पीछे
और था के अनुराग
कि वह उसे सदा बढ़ती
ऊँचाई से न जाने.
जाने तो अपने भोले
चोरे को ‘चोरे’ से जाने
सिर्फ चोरे से.
सचमुच
चोरे ‘चोर’ नहीं हुआ
नाम के प्रभाव ने
उसे कहीं से भी नहीं छूआ
किन्तु उसके नाँव का शोर
कई-कई गाँव में हुआ
क्योकि चोरे का
जैसा अनूठा नाम था,
काम भी,
ग्रामीण संस्कृति की
अजस्र धारा बहती थी
उसके साथ.
बहा ले जाता था वह
गाँव के बच्चे-बूढ़े-जवानों को
अपने भाव में,
कभी बूढ़े वैद्य जी को भूत बनकर
भूत के अस्तित्व पर
विश्वास करने को विवश करता
कभी सोनकी चाची के
उलझे रूखे केश वाले
पोपले मुँह की नकल उतारता,
चिढ़ाता,
कभी राम लीला में बंदर की
सजीव भूमिका निभाता
वह बच्चो को हँसाता
नौजवानो को हँसने-हँसाने के लिए
अपने करतब के किस्से सुनाता.
चोरे को अभावों ने नहीं ढूँढा था
वरन वही
सैकड़ों दीन-दुखियों के अभावों को
ढूँढता और पिछुआता रहता था.
किन्तु
अब चोरे महथा
किसी शहर में खो गया.
अब कोई चोरे महथा हुआ नहीं करता गाँव में.....
और ण उसकी पीढ़ी ही बाकी है
चोरे महथा इतिहास का
हिस्सा बन गया है...
किन्तु उसका किस्सा वर्तमान को
अब भी प्रभावित करने हेतु आतुर है
मैं,
इन पंक्तियों का बुद्धिजीवी लेखक
इस नाम की महता
और गाँव की सत्ता में
चोरे को महसूस तो कर सकता हूँ
किन्तु अपने बच्चे का नाम
चोरे महथा रख नहीं सकता
रखता हूँ- बबलू, डब्लू, टोनी...
सिर्फ कह भर सकता हूँ
‘था एक चोरे महथा’.