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मेरे अबोध! / ईश्वर करुण

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सलौने दिखे थे!
बस, मन के पालने में
लगा उन्हें पालने में
लगा उन्हें पालने
पालता रहा... पालता रहा...

बरसों बाद
भूला-बिसरा
असमय ही बूढ़ा हुआ
मेरा एक भाई मिला,
उसने पूछा-
‘यह क्या पाल रहे हो?’
मैंने कहा – संपने हैं,
इनमें मेरी सोच का
अनुठा संसा है ?
‘बापू का राम-राज तो नहीं?
नहीं, नहीं! राम रूपी जनता के
भरत का खड़ाऊँ-राज है।‘

वह हँसने लगा,
‘इतने वर्षों शायद तुमने
बकरी भी पाली होती,
अपने घर में सोने की
एक खड़ाऊँ
बनवा सकते थे।
तब
सरकार का

महत्वपूर्ण हिस्सा भी
बन सकते थे
गौरव से तन सकते थे

ये तो लोकतन्त्र सपने हैं
सत्ता की आँखें भोगती हैं इन्हें
मेरे तुम्हारी आंखे
बस, इन्हें देखती भर हैं
और
जोहती रहती हैं बाट
इनके सच होने की।‘
‘किन्तु मैं क्या करूँ, मेरे भाई!
अब
न तो मैं बकरी पाल सकता हूँ
न आँखों से
सपनों को ही निकाल सकता हूँ
समय-चक्र को
पीछे भी तो नहीं कर सकता
न स्वयं लौंट सकता हूँ ।‘

वह, कुछ क्षण
गहरी साँसे लेकर
मेरे ओर देखता रहा, बोला-
‘हाँ, मेरे भाई तुम लौट नहीं सकते,
तुम्हारी जैसी पीढ़ी के रहते
‘इस’ लोकतन्त्र को
कोई खतरा नहीं है
समझे, मेरे अबोध !