Last modified on 30 अगस्त 2019, at 12:23

बंजारे / भारतेन्दु प्रताप सिंह

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:23, 30 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भारतेन्दु प्रताप सिंह |अनुवादक= |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चैत की पुरवाई भरी रात में,
हौले-हौले झूमते, आम के बौर को
गुनगुनाते तुमने सुना,
टपकते हुए महुए के फूलों से
सराबोर महकते बगीचों को
बतियाते हुए तुमने सुना,
टिमटिमाते दिए की मद्धिम लौ में
जागते हुए तुम्हारे खेमें को,
चुपचाप रोते हमने देखा।
बन्जारे
क्या पिछले मुकाम पर
तुम्हारा कुछ छूट गया है?
पिछली राह पर,
फुदकता खरगोश
हवा में झूमती महकती दूब पर
ठीक वहीं खेल रहा है,
पिछली रात के चूल्हे की सोंधी राख
उसी बरगद के नीचे अब भी सुलग रही है,
तुम्हारी कहानियाँ और तुम्हारे ही गीत
सुना रहे हैं बगीचे और गा रही हैं हवाएँ।  
मैं सुन रहा हूँ
पुरवाई का धीरे-धीरे थमना
और तुम्हारा अपनी चटाई और खेमे समेटना,
मुँह उजाले, सुबह के रस्ते
नदी के घाट से होकर,
उस पार रेतों में गुजरना॥
तुम्हारे गीत और उन पर थिरकते ढोल की थाप,
भेड़ों के रेवड़ से उठी घंटियों की टन-टन
गहरे डूब गये हैं, मन के भीतर।
बन्जारे। बन्जारे। तू मत जा
मेरा कुछ टूट गया है,
मेरा भी कुछ छूट गया है॥