लेखक: लावण्या शाह
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घर से जितनी दूरी तन की,
उतना समीप रहा मेरा मन,
धूप ~ छाँव का खेल जिँदगी
क्या वसँत , क्या सावन!
नेत्र मूँद कर कभी दिख जाते,
वही मिट्टी के घर आँगन,
वही पिता की पुण्य ~ छवि,
सजल नयन पढ्ते रामायण !
अम्मा के लिपटे हाथ आटे से,
फिर सोँधी रोटी की खुशबु,
बहनोँ का? वह निस्छल हँसना
साथ साथ, रातोँ तक जगना !
वे शैशव के दिन थे न्यारे,
आसमान पर कितने तारे!
कितनी परियाँ रोज उतरतीँ,
मेरे सप्नोँ मेँ आ आ कर मिलतीँ.
?" क्या भूलूँ, क्या याद करूँ ? "
मेरे घर को या अपने बचपन को ?
कितनी दूर घर का अब रस्ता,
कौन वहाँ मेरा अब रस्ता तकता ?
अपने अनुभव की इस पुडिया को,
रक्खा है सहेज, सुन ओ मेरी ,गुडिया !