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मुस्कुराते थे कभी जो तेरे होंटों की तरह / सुरेश चन्द्र शौक़

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मुस्कुराते थे कभी जो तेरे होंटों की तरह

अब सुलगते हैं वही गुल मेरे ज़ख़्मों की त्रह


कुछ सरोकार ज़माने से न कुछ ख़ुद से ग़रज़

ज़िन्दगी आजकल अपनी है फ़क़ीरों की तरह


हम भी शैदा हैं तिरे हम भी हैं मुश्ताक़ तिरे

ज़िन्दगी हम से भी पेश आ कभी अपनों की तरह


दिल तो क्या जान भी हम तुझ पे लुटा देते , मगर

तूने चाहा न हमें चाहने वालों की तरह


लौ लगाई थी कभी हमने किसी से ऐ ‘शौक़’

उम्र भर जलते रहे शब के चिराग़ों की तरह.


शैदा= मुग्ध; मुश्ताक़=अभिलाषी; शब=रात