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निशान / अमित गोस्वामी

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मुहब्बतों के निशाँ देर तक नहीं जाते
लकीरें हाथ से क़िस्मत की मिट गईं फिर भी
तेरी हथेली का नाज़ुक सा लम्स ताज़ा है
है बार−ए−ज़ीस्त से गर्दन झुकी झुकी लेकिन
गले में है तेरी बाहों का दायरा अब भी
मेरे भी आँख है नम और तेरे भी आरिज़ पर
मेरे लबों का वो गीला निशान आज भी है
ये वो निशान हैं, जो उम्र भर नहीं जाते