Last modified on 12 मई 2021, at 20:06

बोला कि आफ़ताब हूँ, दरवाज़ा खोलिए / फूलचन्द गुप्ता

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:06, 12 मई 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फूलचन्द गुप्ता |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बोला कि आफ़ताब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।
चश्मे-बराह ख़्वाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।

क्यों बन्द हूँ दराज़ में संगीन दौर है,
मैं उन्स की किताब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।

मैंने तमाम उम्र में देखा नहीं दुरख़्श,
मैं भी बड़ा अजाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।

शायद किसी की साद है मलबों से दुर्ग के,
कहता है, मैं नवाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।

मशरिक के आफ़ताब करे सुर्ख़रू मुझे,
आता हुआ शबाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।

बाहर ये कौन-कौन है क्या-क्या लिए सवाल,
मैं एक बाज़वाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।