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सुनो अर्जुन - 2 / रश्मि प्रभा

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अर्जुन,
मेरी जन्मकथा का सार सुनो
जब मां देवकी मुझे जन्म देने वाली थी
तब उसकी काया के भीतर
केवल मैं नहीं था,
मेरी अकाल मृत्यु के भय की छाया भी थी
बात ये और है कि
मेरी काया में समाई विष्णु की माया भी थी
उस भय के जाल को मैंने काटा
विश्वास की चादर बुनी
और अवतार का चोला पहने
मैं धरती पर आया
कारावास के बंद द्वार खुलने का जादू
द्वारपालों का गहरी नींद में जाना
अंधेरी काली रात
घनघोर वृष्टि
बाबा वासुदेव का
गोकुल जाने का साहसिक विकल्प
उफनती यमुना का मार्ग देना
और मेरे ऊपर शेषनाग का छत्र...
ये सब नींव बने
केशव के विराट अस्तित्व की।
मुझे मिली मां यशोदा
उसके वात्सल्य की घनी मरकती छांव!
बसा था जिसमें,
मां देवकी की ममता का पुखराजी गांव!
दो मांओं के उर का शीतल ताप ही
मेरी बाल लीलाओं के लिए वरदान
और मेरे युवा स्वरूप की शक्ति बना
मैंने पूतना का अंत
कालिया का मर्दन किया,
कदंब तले बंसी बजाई
श्यामा के तीर रास रचाई
बरसाने के रंग से
वृंदावन को सराबोर किया
अवतार में रहकर भी
अवतार से अलग होकर
अपने माधव को
छिछोरा माखनचोर किया...
इन सबके मध्य
सात नवजात सहोदरों का वध
किसी क्षण
मेरे मानस से उतर नहीं पाया
गोधन गाते-गाते ही
अत्याचारी कंस के कुकृत्यों का
उत्तर लिखता गया
और काल बनकर छाया...
अर्जुन,
तुमने तो संक्षेप में कथा सुनी
पर मेरा एक एक उत्तर विस्तार में था
यह सबकुछ यदि असाध्य नहीं
तो आसान भी नहीं था
बात सिर्फ एक निश्चय की है,
एक लक्ष्य की है,
सोच लो
तो हर प्रश्न का समाधान होता है
और जो हल कर दे
उसी सिद्धार्थ, उसी वर्धमान,
उसी कान्हा के नाम के ललाट पर
एक शब्द-तिलक भगवान होता है।