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खोलो दरवाजा तो खोलो / दिनेश कुमार शुक्ल

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खोलो दरवाजा तो खोलो
उन्हें पता है
सपनों में भी ठीक वहीं से मैं गुजरूँगा
घात लगा कर फन फैला कर वे बैठे हैं
खोलो दरवाजा तो खोलो!

हार-हार कर
इसी ठौर मैं आता हूँ हर बार
यहाँ पर कुछ तो होगा,
यह सुदूर विस्तार खींचता फिर-फिर मुझको
धरती की उर्वर आभा में डूबा खोया
इसी मुहल्ले में पहले रहता था ईश्वर....

इसी ठौर
बत्तीस साल पहले जीवन में प्रथम बार
वह हरसिंगार गुलमेंहदी वाला पखवारा
बत्तीस साल पहले का वह जलता गुड़हल
हँसता दाड़िम
उस दाड़िम पर खिलते गुलाब की रक्ताभा
उस रक्ताभा का अजब स्वाद-
लोहित जल वाला अनहद नद!

नद के प्रवाह में दिखा
तुम्हारा ही अनन्त विस्तार लहर-सा
फटिकशिला पर उठता गिरता
फैल रही थी बाहर भीतर अग्नि और मैं
सहज सृष्टि के आभ्यन्तर में लीन
तुम्हारी ऊष्मा में चुपचाप धड़कता
थका....अनश्वर....द्रवीभूत....अंकुरित बीज.....
बत्तीस साल पहले तमाल के सात वृक्ष
उन वृक्षों को बेधता अकेला एक बाण
वह बाण काटती तब की अल्हड़ हवा
आज तूफान
थपेड़े मार रहा है
खोलो दरवाजा तो खोलो!

चलता चला जा रहा हूँ मैं बन्द गली में
मुझे छेंक कर मेरी छाया
गर्म रक्त से दाग रही है
मेरी पीठ और सीने पर
किसी नयी लिपि में भविष्य के शिलालेख-
मैं शिला नहीं हूँ
खोलो दरवाजा तो खोलो!

मैं हूँ कौन पूछती हो तुम
तुम्हें पता है
तुम तो पढ़ सकती सब कुछ
भूत भविष्य अनागत आगत कहीं नहीं है कोई बाधा
तुम्हें पता है,
चौका बरतन काम-काज सब निबटा कर तुम
बैठी हो एकान्त रिक्ति में
जो मेरी ही अनुपस्थिति है,
तुम अशेष अव्यय गरिमामय कमलनाल-सी हौले-हौले
डोल रही हो प्रलयोदधि में,
ठीक तुम्हारी ही देहरी पर
यह देखो मैं डूब रहा हूँ अपनी साँसों के समुद्र में
खोलो दरवाजा तो खोलो!

पानीपत में कुरुक्षेत्र में
वाटरलू में सोई हुई पराजित लोगों की सेनायें
एक बार पल भर को उठकर
अपने पाँव खड़ी होती हैं,
एक साथ फिर ढह जाती हैं
और धूल का विजयस्तंभ खड़ा हो जाता
घुटता है दम,
खोलो दरवाजा तो खोलो!

खरबूजे-सी फाँक-फाँक करती पृथ्वी को
कितनी भूखी है समृद्धि यह
सूँघ लिया है उसने सबको
उसके हाथों में लेसर की चन्द्रहास है
वध्यस्थल की तरह रक्तरंजित है दुनिया
खोलो दरवाजा खोलो!